महाव्रतादि पाळे, छतां जो वस्तुस्वरूपने बीजी रीते माने तो एवा नग्न दिगंबर जैन साधुने प्रवचनसारनी गाथा २७१मां संसारतत्त्व कहेल छे. राग अने पुण्यना भावने पोताना माननारने, हितरूप माननारने मोक्ष के मोक्षनो मारग होतो नथी; ते तो संसारी ज छे; अने कर्मना संबंधे परिणमे ते पण संसारी ज छे.
अरे भाई! आत्मानी पर्यायमां विकार छे, कर्मनो संबंध छे-एम जाणवुं ते व्यवहार छे, अने चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा विकार ने बंधनथी रहित छे एवा एना चिन्मात्र स्वभावने जाणवो ते निश्चय छे. त्यां जे जीव एकांते व्यवहारने ज स्वीकारी तेना आश्रयमां अटकी रहे छे ते संसारी मिथ्याद्रष्टि छे; ने जे जीव चिन्मात्र शुद्ध आत्मद्रव्यनो आश्रय करे छे ते सम्यग्द्रष्टि छे, धर्मात्मा छे; तेने शुद्ध द्रव्यना आश्रये पर्याय निर्मळ-निर्मळ थती जाय छे, अने कर्म साथेनो संबंध मटतो जाय छे, ने क्रमे साक्षात् सिद्धदशानी प्राप्ति थाय छे. त्यां आत्मानो अमूर्तस्वभाव पूर्ण खीली जाय छे. आवो मारग छे भाई! योगसारमां योगीन्दुदेवे कह्युं छे ने के-
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननीक्षीर.
भाई! भवथी छूटवुं होय, अशरीरी थवुं होय तो ध्यान वडे तारा अंतरमां अशरीरी ज्ञानस्वभावने देख; तेने ध्यातां परम सुखमय अशरीरी सिद्धदशा थशे; पछी फरीवार बीजी मातानुं दूध नहीं पीवुं पडे.
आ प्रमाणे वीसमी अमूर्तत्वशक्ति पुरी थई.
‘समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणामो ते परिणामोना करणना उपरमस्वरूप (ते परिणामोना करवानी निवृत्तिस्वरूप) अकर्तृत्वशक्ति. (जे शक्तिथी आत्मा ज्ञातापणा सिवायना, कर्मथी करवामां आवता परिणामोनो कर्ता थतो नथी, एवी अकर्तृत्व नामनी एक शक्ति आत्मामां छे.)’
जुओ, कर्मना निमित्ते, कर्मना निमित्तना आश्रयथी करवामां आवता जे रागादि परिणाम तेनो कर्ता आत्मा नथी. आठ कर्मना निमित्ते जे शुभाशुभ परिणाम थाय छे ते सघळा ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणाम छे, अनात्म परिणाम छे, अस्वभावभावो छे; भगवान आत्मा तेनो कर्ता नथी. ओहो! समकितीने जे स्वरूपनां निर्मळ ज्ञान- श्रद्धान प्रगट थयां छे तेना भेगुं रागादिनुं अकर्तृत्व पण प्रगटयुं ज होय छे, जेथी ज्ञानी-धर्मी जीव रागादिनो कर्ता थतो नथी. अहा! आवो आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे.
अहा! आत्मामां अकर्तापणानो एक गुण छे. तेनुं कार्य शुं? के कर्मना निमित्तना आश्रये उत्पन्न थयेला पुण्य-पापना विकारी भाव तेने करे नहि, करवानी निवृत्तिस्वरूप परिणमे ते एनुं कार्य छे. बस, विकारथी निवर्तवुं... निवर्तवुं... निवर्तवुं ने स्वरूपमां-ज्ञानस्वभावमां ठरवुं ज ठरवुं ए एनुं कार्य छे. अहा! सिद्ध परमात्मानुं जे कार्य नथी ते (-विकार) भगवान आत्मानुं कार्य नाम कर्तव्य नथी. आवो ज आत्मानो अकर्तृत्व स्वभाव छे.
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानी-धर्मी पुरुषने राग होतो ज नथी. उत्तरः– भाई! एम वात नथी. अस्थिरताना काळमां धर्मीनेय यथासंभव शुभाशुभ होय छे, पण तेनुं श्रद्धान-ज्ञान आम छे के आ विकार मारुं स्वरूप नथी, मारुं कर्तव्य नथी. हुं तो एक ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु ज्ञायक छुं, ने तेमां ठरुं ए ज मारुं कर्तव्य छे. आम पर्यायमां ज्ञानीने दया, दान आदि रागना परिणाम छे, पण तेनुं एने कर्तृत्व नथी. ज्ञान साथे रागनुं अकर्तापणुं नियमथी ज्ञानीने प्रगट थयुं ज होय छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे कोई वळी कहे छे-आत्मा कर्मने करे ने कर्मने भोगवे. अरे, तुं शुं कहे छे आ भाई? अनंतगुणनिधान प्रभु आत्मामां एवी कोई शक्ति ज नथी जे कर्मने करे ने कर्मने भोगवे. ए तो अज्ञान द्रष्टिमां ज तने कर्मनुं कर्तापणुं भासे छे, बाकी स्वभावद्रष्टिवंतने तो आत्मा अकर्ता ज छे, अभोक्ता ज छे. राग करवो ए आत्मानुं स्वरूप ज नथी.