Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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११०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

जुओ, नीचे नरक गति छे. नरकनी भूमिमां वैतरणी नामनी नदी छे. ते नदीनुं पाणी अग्निनी ज्वाळा जेवुं उष्ण छे. परमाधामी देवो नारकी जीवोने ते नदीना पाणीमां फेंके छे. अररर! केटली पीडा! अहीं मोटा राजा होय ते हिंसादि कुकर्मो वडे मरीने नरकमां जाय छे. त्यां उपजवानां भमरीना दर जेवां बील होय छे. त्यांथी पटकाईने नीचे पडे तेनी वेदनानुं शुं कहेवुं? पारावार असह्य वेदना होय छे. श्रेणिक राजा क्षायिक समकित सहित पहेला नरकमां गया छे. त्यां दुःखना परिणाम थाय तेना तेओ कर्ता नथी, भोक्ता नथी. ज्ञानीने तो जाणवा-देखवारूप परिणाम थाय छे अने तेना तेओ कर्ता छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि होवाथी, पर्यायमां कर्मना निमित्ते जे विकारी भाव थाय छे तेना तेओ मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे, कर्ता नथी. जाणवा-देखवाना परिणाम थाय ते ज्ञानीनुं कर्म अने तेना ज्ञानी कर्ता छे, साथे व्यवहार-राग छे तेना ज्ञानी कर्ता नथी. भाई! साचा देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धाना परिणाम ते राग छे, ते परिणाम मिथ्यात्व नथी, पण तेने धर्म मानवो ते मिथ्यात्व छे. खानिया तत्त्वचर्चामां आ प्रश्न चर्चायो छे.

प्रश्नः– देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो भाव शुं मिथ्यात्व छे? उत्तरः– ना, बीलकुल नहि; देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो भाव ते शुभभाव छे, ते मिथ्यात्व नथी; ते धर्म पण नथी, तेने धर्म मानवो ते मान्यता मिथ्यात्व छे. पं. फूलचंदजीए जवाब आपी बराबर खुलासो कर्यो छे. देव-गुरु- शास्त्र छे ते परद्रव्य छे. तेमना प्रति लक्ष जाय ते भाव शुभ छे. ते भाव ज्ञानीने पण आवे छे, पण तेने ते धर्म मानता नथी. अरे भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा-भक्ति-विनय होय ए जुदी वात छे अने तेमना प्रत्येनी श्रद्धाना रागने धर्म मानवो ए जुदी वात छे.

द्रव्यसंग्रहनी गाथा ४७मां कह्युं छे के ज्ञायकभावनुं ध्यान करतां जे निर्विकल्प दशा थई ते निश्चय मोक्षमार्ग छे, तथा साथे जे राग रह्यो तेने आरोपथी व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो छे. आ प्रमाणे व्यवहारनो राग होय छे पण तेनो आत्मा कर्ता नथी. अहाहा...! रागना अकर्तापणे परिणमे एवो आत्मानो सहज अकर्ता स्वभाव छे. रागना कर्तापणे परिणमे एवी आत्मामां कोई शक्ति ज नथी. आवी वात!

हवे आवुं समजवानी एने कयां फुरसद छे? ए तो बस खावुं, पीवुं, खेलवुं ने बैरां-छोकरांने राजी राखवामां रोकाई गयो छे. अने तेमां कांईक धन-पांच पचास लाखनुं कमाय एटले राजी राजी थई जाय ने फूलाई जाय. पण ए तो बधी पुद्गलनी चीज; धूळ छे बापु! खाय, पीवे ने कमाय-ए बधी तो पृथक्भूत पुद्गलनी क्रिया छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी तथा ते पदार्थोना लक्षे जे रागनी वृत्तिनुं उत्थान थाय तेनो पण कर्ता आत्मा नथी. आत्मा तो तेनो ज्ञाता-द्रष्टा छे, कर्ता नहि. परना लक्षे राग थाय तेने पण शास्त्रमां पुद्गलना परिणाम कह्या छे, तेनुं कतृत्व आत्माने नथी अर्थात् तेने न करवा एवी अकर्तृत्व नामनी आत्मानी शक्ति छे.

अरे भाई! आ देह तो जोतजोतामां फू थईने उडी जशे. देहनी स्थिति कयारे पूरी थशे ते कोण जाणे छे? माटे जगतनी जंजाळ अने देहनी संभाळ एक कोर मूकीने आत्मानी-पोतानी संभाळ कर. जगतनुं कांई काम करवुं ने देहने ठीक राखवो ए तो तारा अधिकारनी वात नथी. माटे जूठा विकल्पथी विराम पामी निज शक्तिनी संभाळ कर; तेमां ज आ उत्तम अवसरनी सार्थकता छे. आमां त्रण वातनो निश्चय थाय छे.

१. पृथक्भूत परद्रव्यनुं कर्तृत्व आत्माना द्रव्य-गुण-पर्यायमां कोई प्रकारे नथी. २. स्वभावथी तो विकारनुं पण आत्माने अकर्तृत्व ज छे. हुं करुं छुं-एवी मिथ्या मान्यताने कारणे अज्ञानी

पर्यायमां विकारनो कर्ता थाय छे. (वास्तवमां तो अकर्ता ज छे, पण एवुं ए मानतो नथी तेथी कर्तापणे
परिणमे छे).

३. स्वस्वरूपनी संभाळ करीने जे स्वसन्मुख थई निर्मळ-निर्मळ परिणमे छे ते ज्ञानी विकारनो साक्षात्

अकर्ता थईने ज्ञानभावपणे-ज्ञाताद्रष्टापणे परिणमे छे.

अरे भाई! आ अवसरमां स्वाध्याय वडे यथार्थ तत्त्वनिर्णय करवो जोईए.

जुओ, शास्त्र-स्वाध्यायनो भाव आवे ते शुभ विकल्प छे, तथापि प्रवचनसारमां स्वभावना लक्षे आगमनो अभ्यास करवानुं कह्युं छे. समयसारनी पहेली ज गाथामां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे-केवळी, श्रुतकेवळीनुं कहेल समयप्राभृत हुं कहुं छुं, ते हे शिष्य! तुं सांभळ; केवी रीते? के अनंत सिद्धोनुं तारी पर्यायमां स्थापन करीने सांभळ. में तो अनंत सिद्धोनुं मारी पर्यायमां स्थापन कर्युं छे, तुं पण अनंत सिद्धोनी तारी पर्यायमां स्थापना करीने समयसार नाम शुद्ध आत्मा