-तेने कहेनारुं आ समयसार शास्त्र सांभळ. सिद्धनी पर्याय तो एक समयनी छे, पण पोतानो आत्मा अनंत अनंत सिद्ध पर्यायोनो पिंड छे ने! अहा! एवा स्वरूपनी तुं आ वात सांभळ. अहाहा...! ‘वंदित्तु सव्वसिद्धे’ नो आवो अर्थ छे. अहाहा...! अनंत सिद्धोनुं पर्यायमां स्थापन करे त्यां पोतानी द्रष्टि त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य भणी जाय छे.
अहीं कहे छे. -शुभाशुभ रागना परिणाम ज्ञातृत्वथी भिन्न छे ने ते परिणाम कर्मथी करवामां आवे छे. पण भगवान आत्मा तेनो कर्ता नथी. केमके आत्मा ते परिणामोना करवानी निवृत्तिस्वरूप अकर्तृत्वस्वभावी छे. अहाहा...! आत्मा ज्ञातापणा सिवायना, कर्मथी करवामां आवता शुभाशुभ परिणामोनो कर्ता थतो नथी, एवो ज एनो अकर्तृत्व स्वभाव छे. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्मनी प्रकृतिनो बंध पडे ते भावनो कर्ता आत्मा नथी, तेनो मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे. कर्मकृत परिणामोनो आत्मा जाणनार छे, कर्ता नथी.
अहीं शुभाशुभ विकार थाय छे तेने कर्मकृत कह्या तेथी ते कर्मथी नीपजे छे एम अर्थ नथी. विकारभाव तो जीव पोते स्वतंत्रपणे करे छे, पण कर्म-निमित्तने आधीन थई विकारने करतो होवाथी तेने कर्मकृत कह्या छे. बाकी कर्म तो बिचारां जड छे, ते शुं करे? पूजानी जयमालामां आवे छे ने के-
अगनि सहे घनघात, लोहकी संगति पाई.
तो गोम्मटसारमां ज्ञानावरणथी ज्ञान रोकाय इत्यादि आवे छे ने? हा, पण ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं निमित्तपरक कथन छे. ज्ञान कांई ज्ञानावरणीय कर्मना उदय वडे रोकाई गयुं छे एम नथी. ज्ञाननी हीनदशानुं होवुं ए तो पोतानी ज योग्यताथी छे, कर्म तो निमित्तमात्र छे. विकार कर्मनुं निमित्त होतां थाय छे तेथी तेने कर्मकृत कहेवामां आवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने जे किंचित् राग थाय छे ते पोतानी योग्यताथी कमजोरीवश थाय छे, पण स्वभावद्रष्टिवंत ज्ञानी तेना कर्ता नथी, केमके विकारने करे नहि एवो आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे. अहाहा...! राग थाय ते ज्ञायकथी भिन्न परिणाम छे; अने ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा जे परिणाम छे ते परिणामोना करणना उपरमस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-आपणने आतमा-फातमा कांई समजाय नहि, आपणे तो पुण्य कर्या करवां ने स्वर्गादिनां सुख भोगववां बस.
अरे भाई! अंदर तुं सुखनिधान ज्ञाता-द्रष्टास्वरूप भगवान छो तेनो ईन्कार करीने पुण्यना फळनी होंश- मीठाश करी रह्यो छो, पण तेमां तो अनंत संसाररूपी वृक्षना मिथ्यात्वरूप मूळियां पडयां छे. अहीं कहे छे-पुण्य परिणाम भगवान ज्ञायकथी भिन्न छे, अने तेना करणना उपरमस्वरूप भगवान आत्मानो अकर्ता स्वभाव छे. हवे पोताना आवा स्वभावने ओळख्या विना पुण्य ने पुण्यकर्मनी होंश तुं कर्या करे छे. पण अनादि संसारमां पुण्य अने पुण्यकर्मनो काळ अत्यंत अल्प होय छे; मिथ्यादशामां अनंत अनंत काळ तो जीवनो पाप अने पापना फळरूप दुःखमां ज व्यतीत थाय छे. समजाय छे कांई...?
एक अजाण्या गृहस्थ थोडा वखत पहेलां आवेला. ते कहे-“हुं तीर्थंकर छुं, चार घातिकर्मनो मने क्षय थयो छे, चार अघातिकर्म बाकी छे.” पछी थोडी वार पछी ते कहे-“मारी पासे पैसा नथी, मारा माटे सगवड करी आपो.” जुओ, आ विपरीतता! तेने कह्युं-भाई! आ तो तद्न विपरीत द्रष्टि छे, केमके वस्त्र सहित मुनिपणुं होई शके नहि, पछी केवळज्ञान थई जाय, अने चार घातिकर्मनो क्षय थई जाय ए तो संभवे ज कयांथी? हवे आवुं ने आवुं-घणुं बधुं विपरीत-माननारा जगतमां घणा पडया छे!
अहाहा...! आत्मा अनंत शक्तिनो पिंड, अनंत गुणरत्नोथी भरेलो भगवान रत्नाकर छे. तेनो अंतरसन्मुख थई अनुभव थतां साथे अतीन्द्रिय आनंदनी लहर उठे छे; आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. जुओ, ‘चारित्तं खलु धम्मो’- चारित्र खरेखर धर्म छे, अने ‘दंसण मूलो धम्मो’ -धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. एटले शुं? के सम्यग्दर्शन छे ते चारित्रनुं मूळ छे; सम्यग्दर्शन विना चारित्र होतुं नथी. सम्यग्दर्शन विना कोई बहारमां व्रत, तप करो तो करो, पण ए कांई नथी, थोथां छे; अर्थात् भगवाने तेने बाळव्रत अने बाळतप कह्यां छे.