११२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहाहा...! स्वस्वरूपनी रमणतारूप चारित्र तो कोई अलौकिक चीज छे भाई! निजानंद-ज्ञानानंदस्वरूपमां रमवुं, चरवुं, ठरवुं एनुं नाम चारित्र छे. प्रचुर अतीन्द्रिय आनंदनुं ज्यां भोजन छे एनुं नाम चारित्र छे. ए तो कोई परम पारलौकिक दशा बापु! चारित्र कोने कहीए? अहो! धन्य ए चारित्र दशा ने धन्य अवतार! सम्यग्द्रष्टिने आ चारित्रदशा पूजनीक छे. अहाहा...! अभेद रत्नत्रयस्वरूप भगवान आत्मा अनंतगुण-रत्नाकर छे; तेना सन्मुखनी द्रष्टि करी तेनो स्वसंवेदनमां अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान छे, अने ते महा महिमावंत मोक्ष दशानुं प्रथम सोपान छे. छहढालामां आवे छे ने के-
सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा.
अध्यात्म पंचसंग्रहमां पं. दीपचंदजीए कह्युं छे के-अभव्य जीवने ज्ञान होय छे पण ज्ञाननी परिणति होती नथी. एटले शुं? अहाहा...! अंदर ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा छे तेनुं स्वसंवेदन ज्ञान थाय तेने ज्ञान परिणति कहे छे. अभविने ११ अंग अने नव पूर्वनुं ज्ञान थाय छे, पण तेने ज्ञाननी परिणति थती नथी. ओहोहो...! अगियार अंगनुं ज्ञान कोने कहीए? एक आचारांग शास्त्रना १८००० पद छे, अने एक पदना प१ करोड झाझेरा श्लोक छे. बीजा सूयडांगना एनाथी बमणा, एम बमणा बमणा करतां ११ अंग सुधी लेवुं. आ उपरांत नव पूर्वनुं ज्ञान होय छे. आवुं ज्ञान कांई अभ्यास करवाथी प्रगटतुं नथी. ए तो सहजपणे ए जातनी लब्धि प्रगटे छे. सात द्वीप अने सात समुद्र देखे एवुं विभंग ज्ञान पण अभविने प्रगट थाय छे; परंतु तेने ज्ञाननी परिणति नथी. अहा! जेमां निज ज्ञायकस्वभावनुं निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान थाय तेवी ज्ञाननी परिणति तेने नथी.
अहाहा...! शक्ति अने शक्तिवानना भेदनुं लक्ष छोडीने, सच्चिदानंदस्वरूप अंदर आत्मा निर्विकल्प अभेद एक बिराजे छे तेने ज्ञानमां ज्ञेय बनावी, तेनां निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान करवां तेनुं नाम ज्ञान परिणति छे. अहाहा...! आवुं निज आत्मानुं ज्ञान थतां ज्ञाननी परिणतिनी साथे अनंत शक्तिओ पण भेगी व्यक्त थईने पर्यायमां उछळे छे, उदित थाय छे. आनुं नाम आत्मज्ञान छे, अने ते ज्ञानमां अहीं कहे छे, रागनुं कर्तापणुं नथी. ज्ञान साथे भेगो अकर्ता स्वभाव उछळे छे ने! तेथी ज्ञानी रागनो कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता छे. आवी वात!
जुओ, मध्यलोकमां असंख्यात द्वीप-समुद्रो छे. तेमां छेल्लो स्वयंभूरमण नामनो समुद्र छे. तेनो विस्तार असंख्य जोजनमां छे. तेमां नीचे रेती नथी, रत्नो भर्यां छे. तेम भगवान आत्मा-अखंड एकरूप चैतन्य महाप्रभु- अनंत चैतन्य-रत्नोनो भंडार छे, स्वयंभू चैतन्यरत्नाकर छे. प्रवचनसारनी गाथा १६मां तेने स्वयंभू कहेल छे. अहाहा...! तेनी द्रष्टि करी अंदर झुकवाथी अर्थात् तेमां तन्मय थई परिणमवाथी अनंत गुणरत्नो पर्यायमां निर्मळ- निर्मळपणे व्यक्त थई उछळे छे. अहा! ते पर्यायो क्रमरूपे प्रवर्ते छे. अहीं शुद्ध पर्यायोनी वात लेवी, केमके शक्तिना अधिकारमां अशुद्ध पर्यायनी वात ज नथी.
नियमसारनी गाथा ३८मां पर्यायथी रहित त्रिकाळी जे एक ज्ञायकभाव छे तेने आत्मा कह्यो छे. त्यां द्रव्यद्रष्टिनो विषय एवुं त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य सिद्ध करवुं छे. ज्यारे अहीं त्रिकाळी ध्रुव एक ज्ञायकनां श्रद्धान-ज्ञान थतां जे पर्यायोमां अनंत शक्तिओनुं परिणमन थयुं ते पर्यायो अने गुणोना समूहने आत्मा कह्यो छे. अहीं द्रव्यनी शक्तिओ अने तेनुं परिणमन सिद्ध करवुं छे. तेथी द्रव्यमां अक्रमे प्रवर्तती शक्तिओ अने क्रमवर्ती पर्यायोनो समूह ते आत्मा एम कह्युं छे. आमां विकारी परिणमननी वात आवती नथी, केमके विकार ते शक्तिनुं कार्य नथी, पण कर्मना निमित्ते उत्पन्न थतो औपाधिकभाव छे; वास्तवमां तेनुं कर्तृत्व भगवान आत्माने नथी.
आ ४७ शक्तिओ कही छे ते बधी आत्मामां तो एक साथे छे, अहीं तेनुं वर्णन एक पछी एक कर्युं छे. तेम प्रवचनसारमां छेल्ले ४७ नयनो अधिकार छे. अने ते नयना विषयरूप धर्मो पण द्रव्यमां एकी साथे छे. शुं कीधुं? नित्य, अनित्य आदि बधा धर्मो एकी साथे छे. ने तेथी काळे मोक्ष थाय अने अकाळे मोक्ष थाय एम कह्युं छे छतां ते बन्ने धर्मो एकी साथे एक समयमां रहे छे. ते जातनी जे द्रव्य के पर्यायगत योग्यता छे तेने धर्म कहेल छे. नियतिनय अने अनियतिनयना विषयरूप बन्ने धर्मो पर्यायमां एक ज समये छे. स्वभावरूप पर्यायने नियत कीधी छे, ने विभावरूप पर्यायने अनियत कही छे. तेवी रीते क्रियानय अने ज्ञाननयनी पण त्यां वात करी छे;
“आत्मद्रव्य क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे.”