Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१२२ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२

* गाथा ३१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

शरीर ए जड परमाणुओनो स्कंध छे. अने पांच इन्द्रियो-स्पर्श, जीभ, नाक, आंख अने कान ते जड शरीरना परिणाम छे. शरीरना परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियोने द्रव्येन्द्रियो कहे छे. ते (द्रव्येन्द्रियो) आत्माना परिणाम (पर्याय) नथी. जड द्रव्येन्द्रियोने जीतवी एटले तेनाथी भिन्न, अधिक-जुदो परिपूर्ण एक ज्ञायकने अनुभववो. तेने (अनुभूतिने) भगवान केवळीनी स्तुति अथवा केवळीनां वखाण कहे छे. ज्यारे पोतानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं आदर्युं, तेवा स्वरूपमां एकाग्र थयो त्यारे भगवाननां स्तुति-वखाण कर्यां एम कहेवाय छे. अने ए ज सम्यग्दर्शन एटले धर्मनुं प्रथम पगथियुं छे.

हवे द्रव्येन्द्रियोने केम जीतवी एनी विशेष वात करे छे. टीकामां निरवधिबंधपर्यायवशेन’ एटले अनादि अमर्यादित बंधपर्यायना वशे-एम लीधुं छे. जुओ, कर्मना बंधने मर्यादा नथी, ते अनादि छे. जेम खाणमां सोनुं अने पत्थर बन्ने अनादिनां भेगां छे तेम आनंदस्वरूप आत्माना संबंधमां निमित्तरूपे जड कर्मनी बंध अवस्था अनादिनी छे. अज्ञानी बंधपर्यायना कारणे नहि पण बंधपर्यायने वश थईने परने पोतानां माने छे. भगवान आत्मा चिद्घन ज्ञायकस्वरूप छे. तेना अनुभवथी सम्यग्दर्शन वा धर्म प्रगट थाय छे. परंतु अज्ञानी जड कर्मने वश थईने अधर्मने सेवे छे. पर्यायमां परने वश थवानो धर्म (योग्यता) छे. तेथी ते परने वश थईने रागादि करे छे. प्रवचनसारमां ४७ नय कह्यां छे. तेमां एक ईश्वरनय छे. तेमां आ वात करी छे. कर्मनो उद्रय विकार करावे छे एम नथी. अज्ञानी कर्मना उद्रयने वश थई जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे तेथी अज्ञानीने विकार थाय छे. टीकामां ‘बंधपर्यायवशेन’ एम शब्दो छे एनो अर्थ ए छे के बंधपर्यायथी विकार थतो नथी पण बंधपर्यायने वश थतां अज्ञानी विकाररूपे परिणमे छे.

अहो! दिगंबर संतोए तो ज्यां त्यां (सर्वत्र) स्वतंत्रतानुं ज वर्णन कर्युं छे. अजीव तत्त्व अने विकार-आस्रवतत्त्वनी स्वतंत्रतानी पण जेने खबर नथी तेने आनंद-कंद भगवान ज्ञायक्तत्त्व स्वतंत्र छे तेनी द्रष्टि कयांथी थाय? निमित्तना वशे विकार थाय छे एम न मानतां तेने लईने थाय छे एम मानवामां मोटो उगमणो- आथमणो फेर छे. भाई! आ तो भगवाननो माल संतो तेना आडतिया थईने बतावे छे. समोसरणमां भगवाननी दिव्यध्वनि-ओमकारध्वनि इच्छा विना छूटे छे. बनारसीविलासमां आवे छे के-‘मुख ओमकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै’ आपणे जेम बोलीए छीए तेम भगवान न बोले. एमना कंठ अने होठ हाले-ध्रूजे नहि. ‘ओम्’ एवो ध्वनि अंदर आखा शरीरमांथी नीकळे. एमांथी गणधरदेव बारअंगरूप श्रुतनी रचना करे छे.