गाथा ३१ ] [ १२३
अहीं कहे छे के-भगवान! तुं तो आनंदघन अखंड एक ज्ञायकभाव वस्तु छो ने! तेनो आश्रय छोडी कर्मना उद्रयने वश थई जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे ते मिथ्याभाव छे. तेना कारणे स्व-परनो विभाग अस्त थई गयो छे. बंध पर्यायना कारणे विकार-मिथ्याभाव थाय छे एम नहि, पण बंध पर्यायने वश थवाथी विकार- मिथ्याभाव थाय छे एम वात छे.
‘समस्त स्व-परनो विभाग’ एवा शब्दो छे. एनो अर्थ ए के ज्ञायकस्वरूप जीव पोते ते स्व छे अने जड इन्द्रियो ते पर छे. ते बन्नेनुं भिन्नपणुं पूरुं अस्त थई गयुं छे. तेथी आ जड इन्द्रियो ते ज हुं छुं एम अज्ञानी माने छे. ते जीव अने अजीवने एकपणे माने छे. कर्मबंधनी पर्यायने ताबे थई अज्ञानी भगवान आत्मा ज्ञायकभाव अने शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियो-ए बन्नेनी जुदाई करतो नथी, पण जडनी पर्यायने पोतानी माने छे. अजीवने जीव मानवो के जीवने अजीव मानवो ए मिथ्यात्व छे.
अहो! संतो आत्माने ‘भगवान’ कहीने संबोधे छे. ‘भग’ एटले लक्ष्मी अने ‘वान’ एटले वाळो. आत्मा अनंत ज्ञान अने अनंत आनंदनी लक्ष्मीवाळो भगवान छे. आ तो जेनी पासे ईन्द्रो पण गलुडियांनी जेम वाणी सांभळवा बेसे ते वीतराग जैन परमेश्वरनी वाणीमां आवेली वात छे. परंतु पोते कोण छे तेनुं भान नहि होवाथी कर्मनी बंधपर्यायने वश थई अज्ञानी जड इन्द्रियोने पोतानी माने छे. मारी आंख आवी छे, मारा कान आवा छे, मारुं नाक आवुं छे इत्यादि माने छे. पण भाई ए इन्द्रियो के’ दि तारी हती? अगाउ गाथा १९ मां आव्युं छे के-ज्यांसुधी आ आत्माने ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म अने शरीरादि नोकर्ममां ‘आ हुं छुं’ अने हुं मां (आत्मामां) ‘आ कर्म-नोकर्म छे’-एवी बुद्धि छे त्यां सुधी आ आत्मा अप्रतिबुद्ध छे. भाई! आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे. आ चार मणनी काया होय तेनी स्मशानमां राख थाय छे. ते बहु थोडी राख थाय छे अने पवन आवे ऊडी जाय छे. कह्युं छे ने केः-
संतो जगतने सर्वज्ञनी वाणीना प्रवाहनो भाव जाहेर करे छे. भाई! शरीरनी अवस्थाने प्राप्त जे जड द्रव्येन्द्रियो छे तेने पोताथी एकपणे मानवी ते अज्ञान, मिथ्यात्व, अधर्म छे. ते द्रव्येन्द्रियोनी पोताथी जुदाई केम करवी तेनी हवे वात करे छे. धर्मी निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी द्रव्येन्द्रियोने जुदी करे छे. ‘हुं तो ज्ञायक छुं,