११४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ करवामां मारग समजी संतुष्ट थाय छे, पण ए मारग नथी बापु! ए तो सघळो पराश्रयरूप व्यवहार, बंधनुं ज कारण छे.
अहाहा...! धर्मी-ज्ञानी एने कहीए के जे पराश्रयरूप व्यवहार-रागना करवाथी निवृत्तस्वरूपे ज्ञानमय परिणामे, आनंदमय परिणामे परिणमे छे. रागनो-व्यवहारनो पोताने जे कर्ता माने छे ते तो व्यवहारमूढ छे, मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! व्यवहारना आश्रये मोक्षमार्ग नथी तेथी तो भगवाने व्यवहारना आश्रयनो निषेध कर्यो छे. जेम परने हुं करुं -एवो स्व-परनी एकतानो मिथ्या अध्यवसाय बंधनुं ज कारण छे तेम पराश्रित व्यवहारना भावोथी मोक्षमार्ग थशे एवी मान्यता पण मिथ्या छे ने ते बंधनुं ज कारण छे. भाई! आ भगवानना श्रीमुखेथी आवेली वात छे, आमां कयांय विरोध करवा जेवुं नथी.
धर्मी पुरुष व्यवहारना रागथी निवृत्तस्वरूप छे. परनी क्रिया थाय तेनो कर्ता आत्मा छे ए वात तो दूर रहो, रागना-व्यवहारना परिणामना करणथी-करवाथी आत्मद्रव्य निवृत्तिस्वरूप छे. सर्व परद्रव्यो नकामा अर्थात् कदीय कार्य विनाना नथी. प्रत्येक द्रव्य पोतानुं काम निरंतर करी ज रह्युं छे, कोई पण द्रव्य एक क्षणमात्र पण पोताना कार्य विनानुं होतुं नथी. माटे बीजो-अन्य द्रव्य तेनुं कार्य करे ए वात तो छे ज नहि; परंतु ज्ञानीने जे किंचित् राग छे तेनोय ते कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे. ज्ञानीनी रीति-चाल बहु निराळी छे बापु! भजनमां आवे छे ने के-
प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां नयोना अधिकारमां तेने कर्ता कह्यो छे ने? उत्तरः– हा, ज्ञानीने जेटलो राग छे तेटला ते परिणामनो, ज्ञान अपेक्षाए, कर्ता पण कह्यो छे. रागना परिणाम करवालायक छे एम नहि, ज्ञानीने कर्तृत्वबुद्धिथी रागनी प्रवृत्ति होती नथी; तथापि कमजोरीवश जेटलो राग छे तेटला रागनो, परिणमन अपेक्षाए ज्ञानीने त्यां कर्ता कह्यो छे. त्यां प्रवचनसारमां ज्ञानप्रधान शैलीथी वात छे. अहीं द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए वात छे; तेथी अहीं ज्ञानी रागथी निवृत्तस्वरूप छे एम कह्युं छे. साथोसाथ रागनुं परिणमन छे एटलो ते कर्ता छे एम (कर्तृनये) ज्ञान अपेक्षाए समजवुं.
प्रवचनसारमां तो जेटलो राग छे तेटलो तेनो भोक्ता ज्ञानी छे एम पण कह्युं छे. ज्ञानीने जेटलो राग छे तेटलुं त्यां दुःखनुं वेदन पण छे. जुओ, श्रेणिक राजा आगामी चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर थशे. वर्तमानमां नरकक्षेत्रमां छे. तेओ क्षायिक समकिती छे. तेओ त्यांथी (-नरकथी) नीकळी माताना गर्भमां अवतरण करशे त्यारे स्वर्गना इन्द्रो आवी मोटो उत्सव उजवशे. इन्द्र पण क्षायिक समकिती छे, एक ज भव करी मोक्ष जशे. छतां भगवाननी माताने स्तुति द्वारा कहे छे-हे माता! आप जगत्जननी, रत्नकूंखधारिणी छो. आ बाळकनुं जतन करीने, संभाळीने राखजो. हे माता!
माता! जतन करीने राखजो, तुम सुत अम आधार रे.
जुओ, समकिती इन्द्र भक्तिभावथी स्तुति करीने आम कहे छे के-हे माता! आपने मारा नमस्कार हो. अहा! आवो राग क्षायिक समकिती एकभवतारी इन्द्रने पण आवे छे, छतां ते रागना विकल्पथी खरेखर ज्ञानी निवृत्तिस्वरूपे परिणमे छे. रागना-विकल्पना तेओ ज्ञाता ज छे, कर्ता नहि. धंधा-पाणीनी क्रिया तो जडनी-जडस्वरूप छे, तेनो तो कर्ता आत्मा नथी, पण ज्ञानीने भगवान प्रत्ये जे भक्ति विनयनो विकल्प उठे छे तेनोय ते र्क्ता नथी, तेनाथीय ज्ञानी तो निवृत्तस्वरूप छे. अहो! मुनिराजने जे व्रतादिना विकल्प उठे छे तेना करवाथी तेओ निवृत्तस्वरूप छे. हवे आवी अंतरनी वात समज्या विना लोक तो व्रत, तप आदि करवामां मंडी पडया छे, पण ए बधी क्रियाओ तो थोथां छे भाई! एना कर्तापणे परिणमवुं ए तो मिथ्यादशा छे. समकितीने तो शुद्धतारूपे अकर्तृत्वशक्ति परिणमी छे अने ते रागना निवृत्तिस्वरूप छे; आ अनेकान्त छे.
रागथी धर्म थवानुं माने अने ज्ञाताद्रष्टा स्वभावना आश्रये पण धर्म थवानुं माने ते अनेकान्त नथी, स्याद्वाद नथी; ए तो फूदडीवाद छे. आत्मा पोताना निर्मळ परिणामनो कर्ता छे अने रागना-व्यवहारना कर्तृत्वथी निवृत्त छे-आ सम्यक् अनेकान्त छे.
तो पंचास्तिकायमां व्यवहार साधन कह्युं छे ने? हा, पंचास्तिकायमां भिन्न साधन-साध्यनी वात करी छे, पण ए तो बाह्य सहचर अने निमित्तनुं ज्ञान कराववा