माटेनी वात छे. वास्तवमां भिन्न साधन-साध्य छे ज नहि. परमार्थे साधन बे नथी, पण शास्त्रमां साधननुं बे प्रकारे निरूपण कर्युं छे; जेम मोक्षमार्ग बे नथी, पण मोक्षमार्गनुं कथन शास्त्रमां बे प्रकारे छे तेम. मोक्षमार्ग तो त्रणेकाळ एक ज छे, वीतरागभावरूप एक ज मोक्षमार्ग छे. ते साथे सहचरपणे राग बाकी होय छे तेथी तेने आरोप दईने व्यवहारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे, पण ते छे तो बंधनो ज मार्ग. ज्ञानी तो तेना कर्तृत्वथी निवृत्तस्वरूप ज छे.
अहा! अकर्तृत्वशक्ति परिणमे छे तेना भेगी अकार्यकारणत्वशक्ति पण परिणमे छे. तेथी शुभभाव कारण अने स्वानुभव थयो ते एनुं कार्य एम नथी. तथा निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट थयुं ते कारण अने व्यवहारनो शुभराग थाय ते एनुं कार्य एम पण नथी. भाई! आत्मा रागनुं कारणेय नथी, अने रागनुं कार्य पण नथी. तेम जे शुभराग छे ते ज्ञाननुं कारणेय नथी, अने ज्ञाननुं कार्य पण नथी. अहा! आ तो जैनदर्शननी अलौकिक वात! धर्म केम थाय ते समजवा माटे आ बधुं पहेलां जाणवुं जोईशे हों; आ समज्या विना धर्म थवो संभवित नथी.
भाई! शास्त्रमां कई पद्धतिथी शुं कह्युं छे ते बराबर समजवुं जोईए; पोतानी मति-कल्पनाथी उंधा अर्थ करशे तो द्रष्टि विपरीत थशे; अने तो शास्त्र-स्वाध्यायनुं साचुं फळ नहि आवे, संसार-परिभ्रमण ज रहेशे.
अहो! एकेक शक्तिने वर्णवीने आचार्यदेवे भगवान समयसार नाम शुद्धात्मा प्रसिद्ध कर्यो छे. एक शक्तिने पण यथार्थ समजे तो अनादिकालीन जे विकारनी गंध पेसी गई छे ते नीकळी जाय. अहाहा...! एकेक शक्ति जे एक ज्ञायकने प्रसिद्ध करे छे ते ज्ञायकनी द्रष्टि थतां अने तेमां ज ठरतां विकारनो अंत आवी जाय एवी आ वात छे. हे भाई! विकार कांई मारी चीज नथी एम जाणी विकारथी भिन्न निज ज्ञायकभावनी द्रष्टि कर, ने तेमां ज ठर, तेमां ज चर; जेथी आत्मानो अकर्तास्वभाव अंतरमां प्रगट थशे. भवभ्रमणनो नाश करवानी आ ज रीत छे भाई!
आ प्रमाणे अहीं अकर्तृत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणामोना अनुभवना (-भोगवटाना) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्वशक्ति.’
जुओ, अहीं एम कहे छे के-आहार, पाणी, स्त्रीनुं शरीर वगेरेनो भोक्ता तो आत्मा नथी, पण कर्मथी करवामां आवेला, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा एवा जे समस्त विकारी भाव छे तेनो पण जीव भोक्त नथी. अहा! आवो भगवान आत्मानो अभोक्तापणानो स्वभाव छे. ज्ञानीने भोगनी आसक्तिना परिणाम थाय, पण ते परिणामना भोगवटाथी ज्ञानी निवृत्तिस्वरूप छे. अहा! हरख-शोकना, साता-असाताना जे परिणाम छे ते ज्ञानीना ज्ञातापरिणामथी जुदा ज छे, ज्ञानी तेमां तन्मय थतो नथी, तेथी ज्ञानी तेनो भोक्ता नथी, मात्र ज्ञाता ज छे. जुओ, आ ज्ञानभाव साथेनुं अभोक्तृत्व स्वभावनुं परिणमन! पर्यायमां विद्यमान होवा छतां ते हरख-शोक आदि परभावनुं ज्ञानीने अभोक्तापणुं छे. अहो! आ तो स्वभावद्रष्टिनी कोई अद्भुत कमालनी वात छे. स्वभावनी परिणति थया विना न समजाय एवी आ अंतरनी अलौकिक वात छे. समजाणुं कांई...?
दाळ, भात, मोसंबीनो रस, रसगुल्लां इत्यादि जड, माटी, अजीव तत्त्व छे. ते रूपी पदार्थ छे. अरूपी एवो भगवान आत्मा तेनो भोक्ता नथी. रूपी पदार्थ तरफ लक्ष करीने आ चीज ठीक छे एवो राग जीव उत्पन्न करे, अने त्यां अज्ञानी एम माने के हुं शरीरादिने भोगवुं छुं, परचीजने भोगवुं छुं, पण ए तो एनी मिथ्या मान्यता छे, केमके परचीजने आत्मा त्रणकाळमां भोगवी शकतो नथी-जडने जो आत्मा भोगवे तो तेने जडपणुं आवी पडे.
कोई मोटो शेठ होय, भारे पुण्यना ठाठ वच्चे उभो होय, रूपाळो देह मणि-माणेकथी मढेलो होय ने घरे बाग-बंगला-बगीचा-मोटरो इत्यादि करोडोनी साह्यबीभर्यो वैभव होय, त्यां अज्ञानीने मोंमां पाणी वळे के-अहा! केवी साह्यबी ने केवो भोगवटो! आ शेठ केवा सुखी छे! पण भाई! आ तो तारी बहिद्रष्टि छे अने ते मिथ्या छे; केमके जड पदार्थोनो भोगवटो आत्माने छे ज नहि. सुखनो एक अंश पण तेमांथी आवे तेम नथी.