११६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहीं तो धर्मी जीवनी वात छे. धर्मी जीवने स्वस्वरूपनी द्रष्टि थतां आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे तेथी तेओ प्रगट अतीन्द्रिय आनंदना भोक्ता छे; तेमने किंचित् राग बाकी छे, पण ते रागना तेओ भोक्ता नथी. अहा! सिंह के शियाळियां फाडी खातां होय ते काळेय निजानंदरसलीन एवा मुनिराज आनंदना भोक्ता छे; किंचित्विषादना परिणाम ते काळे थाय, पण तेना तेओ भोक्ता नथी. अंदर अभोक्तृत्व स्वभाव प्रगटयो छे ने? तेथी ज्ञानी हरख-शोकना भोगववाना निवृत्तिस्वरूपे परिणम्या छे. आवी वात! अज्ञानीने देहाध्यास छे तेथी ज्ञानीनुं अंतरंग परिणमन तेने भासतुं नथी.
प्रश्नः– हा, पण तो रागने कोण भोगवे छे? उत्तरः– कोण भोगवे? रागने भोगवे रागी. रागना परिणाम पोताना षट्कारकथी पर्यायमां थाय छे, ने रागी जीवो तेमां तन्मय थई परिणमे छे; ज्ञानी तेमां तन्मय नथी, तेथी ज्ञानी रागना भोक्ता नथी. अहीं आ स्पष्ट कह्युं छे के-जीवनी अभोक्तृत्वशक्ति, राग-द्वेषादिना अनुभवथी उपरमस्वरूप छे. कोई पण परद्रव्यनो भोक्ता तो जीव त्रणकाळमां नथी, पण रागना भोगवटाथी पण उपरमस्वरूप जीवनो स्वभाव छे, तेथी स्वभावनियत ज्ञानी पुरुष रागना भोक्ता नथी.
त्यारे कोई पंडितोए इंदोरमां एक वार कहेलुं-“जीवने परद्रव्यनो कर्ता न माने ते दिगंबर नथी.” अरे, तुं शुं कहे छे आ? महान दिगंबराचार्यो-केवळीना केडायतीओ शुं कहे छे ए तो जो. अहीं आ स्पष्ट कह्युं छे के-आत्मा रागनो कर्ता-भोक्ता नथी. परना कर्ता-भोक्तापणानी तो वात ज कयां रही? अरे भाई! स्वभावना द्रष्टिवंतने एक निजानंदनो ज भोगवटो छे, ते अन्य (रागादिना) भोगवटाथी सदा उपरमस्वरूप छे. अरे भाई! -
• आत्मा जो जडने भोगवे तो तेने जडपणुं आवी पडे.
• आत्मा जो रागने तन्मयपणे भोगवे तो तेने बहिरात्मपणुं आवी पडे. तेथी
• आत्मा (ज्ञानी पुरुष) निज स्वभावथी पोताना ज्ञानानंदमय निर्मळ भावने ज भोगवे छे, अने ते ज
भाई! तने समजमां न आवे तेथी शुं थाय? मारग तो आवो ज छे.
अरे भाई! एक वार आ शरीरादिनो मोह छोडी, कुतुहल करीने अंदर स्वरूपमां डूबकी तो मार. तने त्यां कोई अचिन्त्य निधान देखाशे. आ देह तो हाड-मांस-चामनुं, माटीनुं ढींगलुं छे अने आ बधा बाग-बंगला-मोटरुं पण धूळनी धूळ छे. एनाथी तने शुं छे? एना लक्षे तो तने राग अने दुःख ज थशे. अने ए रागने भोगववानी द्रष्टि तो तने अनंत जन्म-मरण करावशे. काळकूट सर्पनुं झेर तो एक वार मरण करावे पण आ उंधी द्रष्टिनुं झेर तो अनंत मरण करावशे. माटे हे भाई! अनंतसुखनिधान निज चैतन्यस्वरूपने ओळखीने तेना अनुभवनो उद्यम कर; ते ज तने अनंत जन्म-मरणथी उगारी परम सुखनी प्राप्ति करावशे.
ज्ञानीने किंचित् आसक्तिना परिणाम थाय छे, पण तेनी तेने रुचि नथी, तेमां तेने सुखबुद्धि नथी. ज्ञानीने निज चैतन्यस्वभावनुं भान थवाथी, रागना अभावस्वभावस्वरूप जे अभोकतृत्व शक्ति छे तेनुं परिणमन थयुं छे. अने तेथी ते आसक्तिना परिणामनो भोक्ता थतो नथी. अहाहा...! चैतन्य चिदानंदमय एक ज्ञायकभावना तळनो स्पर्श करीने ज्ञाता-द्रष्टाना परिणाम प्रगट थया छे तेथी ज्ञानी विकारना-आसक्तिरूप परिणामना भोगवटाथी निवृत्तस्वरूप छे. आ समजवा खूब धीरज जोईए भाई! आ तो धर्मकथा छे बापु!
जुओ, भरत चक्रवर्ती क्षायिक समकिती हता, छ खंडना राज्यमां हता ने छन्नु हजार राणीना भोगनी आसक्तिना परिणाम तेमने थता हता. छतां द्रष्टि स्वभाव पर हती, तेथी ते काळे तेओ ज्ञाता-द्रष्टा परिणामना भोक्ता हता, विकारना विषैला स्वादना नहि. अरे भाई! ज्ञाता-द्रष्टारूप परिणाम स्वयं विकारना अभोक्तृत्वस्वरूप छे. सम्यग्द्रष्टि जीव नरकना भारे प्रतिकूळ संयोगमां होय ने तेने किंचित् आकुळताना परिणाम थाय. छतां ते आकुळताने भोगवतो नथी, ए तो स्वभावनी द्रष्टि वडे निर्मळ परिणतिना सुखनी अंतरमां गटागटी करे छे. अहाहा...!
चिन्मूरत द्रगधारीकी मोहि, रीति लगति है अटापटी.