अहाहा! सम्यग्द्रष्टिनी परिणति अटपटी छे. श्रेणिक राजानो जीव नरकमां पण अत्यारे निराकुळ आनंदरूप परिणामनो ज भोक्ता छे, ने जे दुःख छे, प्रतिकूळता छे तेने बहारनी चीज जाणी तेना भोगववाना उपरस्वरूप ज तेओ परिणमी रह्या छे. आवी वात! समजाणुं...?
शुं थाय? अज्ञानी तो बहानुं करवामां रोकाई गयो छे; आखो दिवस पाप, पाप ने पाप. हवे ते कयारे निवृत्ति ले अने कयारे तत्त्व समजे? पण आ तो जीवन चाल्युं जाय छे भाई! पछी कयां जईश, कयां उतारा करीश? जरा विचार कर.
अहीं कहे छे-अनंतगुणनिधान प्रभु आत्मामां, ज्ञातृत्वमात्रथी भिन्न एवा विकारी परिणामना भोगवटाथी निवृत्तस्वरूप एवुं त्रिकाळ अभोक्तापणुं छे. ने आवा स्वभावनो अंतर-लक्ष करी स्वीकार करतां पर्यायमां पण अभोक्ता गुणनुं परिणमन भोक्ता थतो नथी. भाषा तो सादी छे, भाव गंभीर छे. अहा! अभोक्तृत्वशक्तिनुं भान थतां पर्यायमां अभोक्तापणुं प्रगटयुं अने हवे ते रागना-विकारना परिणामनो भोक्ता नथी. आनुं नाम धर्म छे.
आ प्रमाणे अहीं अभोक्तृत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त कर्मना उपरमथी प्रवर्तती आत्मप्रदेशोनी निष्पंदतास्वरूप (-अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति. (सकळ कर्मनो अभाव थाय त्यारे प्रदेशोनुं कंपन मटी जाय छे माटे निष्क्रियत्वशक्ति पण आत्मामां छे.)’
अहाहा...! भगवान आत्मानो-त्रिकाळी एक ज्ञायकभावमात्र वस्तुनो-आश्रय करतां ज्ञाननी पर्यायमां आखुं पूर्ण द्रव्य अने तेनां अनंत गुणनुं ज्ञान थाय छे; ने त्यारे पर्यायमां सर्व गुणोनी एकदेश व्यक्ति प्रगट थाय छे. अहा! अक्रमवर्ती अनंतगुणमय प्रभु आत्मा छे, अने तेनी निर्मळ निर्मळ पर्यायो क्रमवर्ती प्रगट थाय छे. ते अक्रमवर्ती गुणो ने क्रमवर्ती पर्यायोनो समुदाय ते आत्मा छे. विकारी पर्यायनी अहीं वात करी नथी, केमके विकार ए शक्तिनुं-गुणनुं कार्य नथी. अहाहा...! शक्तिना धरनार सामान्य ध्रुव एक स्वभावभाव-एक ज्ञायकभाव उपर द्रष्टि करवाथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे, अने त्यारे आत्मामां निष्क्रियत्व सहित जेटला अनंत गुण छे ते पर्यायमां एकदेश प्रगट थाय छे. अहा! ज्ञानभाव प्रगट थतां साथे अनंती शक्तिओ भेगी उछळे छे.
जुओ, पहेलां अकर्तृत्व अने अभोक्तृत्वशक्तिनुं वर्णन कर्युं; त्यां एम कह्युं के-समस्त, कर्मथी करवामां आवता, ज्ञातृत्वमात्रथी जुदा परिणामोना करवाना अने भोगववाना उपरमस्वरूप अकर्तृत्व अने अभोक्तृत्वशक्ति. अहीं आ निष्क्रयत्वशक्तिना वर्णनमां कहे छे-समस्त कर्मना उपरमथी प्रवर्तती आत्मप्रदेशोनी निष्पंदतास्वरूप (- अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति छे. जुओ, आत्मानो स्वभाव तो स्थिर-अकंप-निष्क्रिय छे. प्रदेशोनुं कंपन ए तो कर्मना निमित्ते थयेलो औदयिकभाव छे, ते स्वभावभाव नथी. स्वरूपना आश्रये सर्व कर्मोनो अभाव थतां चैतन्यप्रभु पूर्ण स्थिर-अक्रिय थाय छे. अने ते अक्रियत्व आत्मानो स्वभाव छे, स्वभाव छे तेनी त्यां प्रगटता छे. समकिती धर्मीने पण आ स्वभावनी एकदेश व्यक्तता थाय छे. धर्मीनी द्रष्टिमां कर्म-निमित्तना संबंध रहित एक अकंप चिदानंद स्वभाव ज वर्ते छे, अने तेथी तेने कर्म तरफना कंपन सहित बधा भावोनो द्रष्टि अपेक्षाए अभाव छे.
तद्न अकंपपणुं तो चौदमा गुणस्थानमां प्रगट थाय छे; तथापि चोथा गुणस्थाने क्षायिक समकिती जीवने पण निष्क्रियत्वनो अंश व्यक्त थाय छे. आस्रव अधिकारमां गाथा १७६ना भावार्थमां आ वात आवी छे. खरेखर तो पोतानुं पूर्णानंदस्वरूप त्रिकाळी द्रव्य जयां प्रतीति ने अनुभवमां आव्युं त्यां दरेक सम्यग्द्रष्टि जीवने चोथा गुणस्थाने पर्यायमां एकदेश निष्पंदतारूप परिणमन थाय छे, अर्थात् निष्क्रियत्वशक्तिनो एक अंश पर्यायमां व्यक्त थाय छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए पण ‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’-एम सम्यग्दर्शननी व्याख्या करी छे; मतलब के सम्यग्दर्शन थतां अविनाभावपणे सर्व अनंत गुणनो अंश प्रगट थाय छे.
रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां पं. श्री टोडरमलजी कहे छे-“ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो एकदेश