११८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ प्रगट थया छे तथा तेरमा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो सर्वथा प्रगट थाय छे.” जुओ ज्ञान, दर्शन, आनंद गुणनो एक अंश प्रगट थाय छे एम नथी कह्युं, पण ज्ञानादि गुणोनो एटले ज्ञानादि सर्व गुणोनो एकदेश चोथा गुणस्थानमां प्रगट थाय छे एम वात छे. अहाहा...! अनंत... अनंत... अनंत गुणरत्नोनो भंडार चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. अने सम्यग्दर्शन प्रगट थतां तेना ज्ञानादि सर्व गुणोनो एक अंश व्यक्तरूपे पर्यायमां परिणमे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
अहा! आत्मानी एकेक शक्तिमां अनंतु सामर्थ्य छे. एकेक शक्तिमां अनंत शक्तिनुं रूप छे. एकेक शक्ति अनंत शक्तिमां व्यापक छे. तेथी निष्क्रियत्वशक्ति द्रव्य-गुणमां त्रिकाळ व्यापक छे. अने त्रिकाळी द्रव्यनुं भान थतां निष्क्रियत्वशक्ति पर्यायमां पण व्यापक थाय छे. आ प्रमाणे निष्क्रियत्वशक्तिनो अयोगपणारूप अंश चोथा गुणस्थाने समकितीने पर्यायमां प्रगट थाय छे. चार अघाति कर्मोनो नाश थतां जे प्रतिजीवी गुणो प्रगट थाय छे तेनो पणएक अंश चोथा गुणस्थाने प्रगट थाय छे. रहस्यपूर्ण चिट्ठीमां आ वात स्पष्ट करतां त्यां कह्युं छे-“वळी भाईश्री! तमे त्रण द्रष्टांत लख्यां अथवा द्रष्टांत द्वारा प्रश्न लख्या, पण द्रष्टांत सर्वांग मळतां आवे नहि. द्रष्टांत छे ते एक प्रयोजन दर्शावे छे. अहीं बीजनो चंद्र, जळ बिंदु, अग्निकण ए तो एकदेश छे अने पूर्णिमानो चंद्र, महासागर तथा अग्निकुंड ए सर्वदेश छे. ए ज प्रमाणे चोथा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो एकदेश प्रगट थया छे तथा तेरमा गुणस्थानमां आत्माने ज्ञानादिगुणो सर्वथा प्रगट थाय छे.”
चंद्रमानुं द्रष्टांत अहीं सर्वांग लागु न पडे. चंद्रनो जेम थोडो भाग व्यक्त छे अने बाकीना भागमां आवरण छे तेम अहीं सिद्धांतमां लागु न पडे. सम्यग्दर्शन थतां आखुं द्रव्य ख्यालमां आवे छे, अने व्यक्तमां असंख्य प्रदेशे अनंत गुणोनो एक अंश प्रगट थाय छे. चंद्रनो तो अमुक भाग खुल्लो छे, अने बाकीना भागमां आवरण छे, आ द्रष्टांत अहीं सिद्धांतमां सर्वांग लागु पडतुं नथी. भगवान आत्माना असंख्य प्रदेशना क्षेत्रमां अनंत गुणोनां निधान पडयां छे. ते अनंत गुण पूरा क्षेत्रमां असंख्य प्रदेशमां व्यापक छे. सम्यग्दर्शन थतां चोथा गुणस्थाने ते ज्ञानादि सर्व गुणोनो असंख्य प्रदेशमां एक अंश व्यक्त थाय छे; कोई गुण बाकी रहेतो नथी. चार प्रतिजीवी गुणो तथा आ निष्क्रियत्वशक्तिनो पण पर्यायमां एक अंश प्रगट थाय छे. अहा! आवुं अलौकिक सम्यग्दर्शन छे.
समयसारनी गाथा ११ जैनदर्शननो प्राण छे. तेमां कह्युं छे-
भुदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।
व्यवहारनय अभूतार्थ छे अने शुद्धनय भूतार्थ छे एम ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; जे जीव भूतार्थनो आश्रय करे छे ते जीव निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे.
पं. श्री कैलासचंद्रजीए आ गाथाने जैनदर्शननो प्राण कह्यो छे. भूतार्थ, त्रिकाळ सत्यार्थ सच्चिदानंदस्वरूप निज आत्मद्रव्य छे. तेनो आश्रय लेतां पर्यायमां असंख्य प्रदेशे अनंत गुणनो एक अंश प्रगट थाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
जुओ, आस्रव अधिकारनी गाथा १७६ना भावार्थना बीजा फकरामां कह्युं छे-“सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वनो अने अनंतानुबंधी कषायनो उदय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भावास्रवो तो थता ज नथी अने मिथ्यात्व तेम ज अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध पण थतो नथी. (क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने सत्तामांथी मिथ्यात्वनो क्षय थती वखते ज अनंतानुबंधी कषायनो तथा ते संबंधी अविरति अने योगभावनो पण क्षय थई गयो होय छे. तेथी तेने ते प्रकारनो बंध थतो नथी;...)” अहीं क्षायिक सम्यग्द्रष्टिनी वात करी, पण दरेक सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थानमां निष्क्रियत्वशक्तिनो एक अंश पर्यायमां प्रगट थाय छे एम समजवुं. अहो! आ वात अद्भुत अलौकिक अने सूक्ष्म गंभीर छे! चोथा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो एकदेश प्रगट थया छे तेनी तथा तेरमा गुणस्थानवर्ती आत्माने ज्ञानादि गुणो सर्वदेशरूप प्रगट थया छे तेनी एक ज जाति छे एम समजवुं-आम कहीने पं. श्री टोडरमलजीए अद्भुत रहस्य खुल्लुं कर्युं छे. भाई! आवी वात सर्वज्ञना मारग सिवाय कयांय नथी.
बहारमां धन-लक्ष्मीनो भंडार मळे ए तो पुण्य होय तो मळे, एमां कांई कोईनी होशियारी के डहापण काम आवतुं नथी. पण जेणे पोतानुं डहापण-विवेकज्ञान अंदर अनंतगुणनिधान चैतन्यलक्ष्मीनो भंडार भर्यो छे तेने जोवा-जाणवामां लगाव्युं, अहाहा...! तेने, कहे छे, द्रव्यमां असंख्य प्रदेशे जे अनंत गुण-शक्तिओ छे ते बधीनो एक अंश