पर्यायमां व्यक्त थई जाय छे. अहाहा...! द्रव्य-गुणमां तो शक्ति व्यापी छे, ने पर्यायमांय ते व्यापे छे; केमके दरेक शक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. समजाय छे कांई...? आ द्रव्यानुयोगनुं कथन बहु झीणुं बापु! निज पुर्ण सत्नी प्रतीति जयां थई के सर्व गुणोनो एक अंश पर्यायमां व्यक्त थाय छे. अहो! निष्क्रियतानो अयोगपणारूप एक अंश समकिती धर्मीने चोथा गुणस्थाने प्रगट थई जाय छे.
हवे आ पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय शुं एनीय घणाने तो खबर नथी. थानथी एक भाई आवेला. तेमणे अहींना स्वाध्याय मंदिरनी दिवाल उपर लखेलो चाकळो वांच्यो, “द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि” -पछी ते बोल्या-“ महाराज! आ द्रव्यद्रष्टि ते सम्यग्द्रष्टि-एम अहीं लख्युं छे तो शुं द्रव्य एटले पैसावाळा अहीं घणा लोको आवे छे ते बधा सम्यग्द्रष्टि छे एम आ लखवानो अर्थ छे?” त्यारे तेमने कह्युं-एम नथी भाई! द्रव्य एटले पैसावाळा एवो अर्थ नथी बापु! द्रव्य एटले आत्मद्रव्य-अनंतगुणनिधान परमार्थ वस्तु, गुण एटले एनो त्रिकाळी भाव-स्वभाव, अने पर्याय एटले तेनुं परिणमन थाय ते दशा. द्रव्य-गुण-पर्यायनो आवो अर्थ छे भाई! हवे जैनमां जन्मेलानेय आनी कांई खबर न मळे एने धर्मनुं स्वरूप केवी रीते समजाय, अने धर्मनी प्राप्ति एने केवी रीते थाय? पैसा तो जड छे बापु! अने तेने पोताना माने ए तो जडनो स्वामी, जड थाय छे. जेम भेंसनो पति पाडो होय तेम पैसा अने रागनो स्वामी थनार जड छे, चेतन नथी. निर्जरा अधिकारनी गाथा २०८नी टीकामां आचार्य अमृतचंद्रस्वामी फरमावे छे के-
“जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं ‘स्व’ थाय, हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे (लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायक भाव ज जे ‘स्व’ छे, तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने नहि परिग्रहुं.”
हवे आवी वात ओला व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने छे एमने एकान्त लागे छे; पण आ सम्यक् एकान्त छे भाई! तुं न समजे एटले विरोधना पोकार करे पण आ परमार्थ सत्य छे. अहाहा...! पोतानुं स्वरूप अंदर त्रिकाळ ध्रुव एक सच्चिदानंदमय छे. तेमां एकाग्र थतां पर्यायमां एकान्त अर्थात् एकली वीतरागी शांति प्रगट थाय छे. अहीनुं वातावरण पण एकान्तमय-शांतिमय छे ने? स्वरूपनुं भान थये अनंत गुणोमां निर्मळतानो अंश प्रगट थाय छे, आनंद गुणनो अंश प्रगटे छे, ने साथे वीर्य गुणनो अंश पण प्रगटे छे. वीर्य एटले? अहाहा...! स्वस्वरूपनी रचना करे एनुं नाम वीर्य छे. रागनी रचना करे ए वीर्यनी परिणति नहि, ए तो नपुंसकता- हीजडापणुं छे. जेम नपुंसकने प्रजा थाय नहि तेम आने पण धर्मनी प्रजा थती नथी.
मारग घणो सूक्ष्म छे भाई! बहारना पदार्थ साथे तने शुं संबंध छे? अरे, शुभरागनो विकल्प थाय तेय दुःखदायक छे. अरे भाई! तने तारी खबर नथी! भगवान! तुं ज्ञानानंदस्वभावी छो ने! तारी दशामां आनंदनो स्वाद आववो जोईए तेना बदले अरे, तुं रागना-दुःखना वेदनमां रोकाई गयो! दुःखना-रागना अभावस्वभाव स्वरूप भगवान! तुं असंगमूर्ति चैतन्यप्रभु छो. अहा! आवा निज आनंदस्वरूपना संगमां-समीपतामां गयो नहि, अने रागना संगमां तुं रोकाई गयो, रागना रंगमां रंगाई गयो! रागनो संग करीने भाई! तें पर्यायमां दुःख वहोरी लीधुं छे. शुभयोगने तुं मोक्षनुं साधन माने पण ए तो तारुं अज्ञान छे. धर्मीने जे अंशे अकंपदशा प्रगट थई छे तेमां शुभयोगनो तो अभाव छे; ते धर्मनुं साधन केम थाय? शुभराग धर्मनुं साधन त्रणकाळमां नथी.
त्यारे कोई एक पंडिते लख्युं छे के-‘शुभरागने हेय माने ते मिथ्याद्रष्टि छे’ अरे भाई! पंडित थईने तें आ शुं लख्युं? तारो आ विपरीत अभिप्राय दुनिया मानी लेशे (केमके दुनिया तो अवळे मार्गे छे ज), पण वस्तुस्थितिमां महा विरोध थशे, वस्तु तारा अभिप्रायथी संमत नहि थाय.
अकर्तृत्वशक्तिमां समस्त, कर्मथी करवामां आवता परिणामोना करणना उपरमस्वरूपनी वात हती. विकारी भाव कर्मथी करवामां आवेला परिणाम छे, ने तेना करणना उपरमस्वरूप अकर्तृत्वशक्ति छे. तेम अकंपनस्वरूप निष्क्रियत्वशक्तिनी विकृत अवस्था कंपनरूप परिणाम छे ते कर्म द्वारा करवामां आवेली दशा छे; वास्तवमां सर्व कर्मना अभावथी प्रवर्तती अकंपतारूप निष्क्रियत्वशक्ति ते आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. अहा! आ टीकामां तो भंडार भर्या छे.
भगवान आत्मा चैतन्यरत्नाकर प्रभु छे. तेनी पर्यायमां कंपन थाय छे ते कर्म द्वारा करवामां आवता परिणाम छे, ते आत्मानो स्वभाव नथी, अने तेनो कर्ता आत्मा नथी. चोथा गुणस्थाने धर्मीने जे अंशे अकंपनरूप दशा प्रगट