१२०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ थई छे तेमां ते कंपनदशानो अभाव छे. शुं कीधुं? निष्क्रियत्वशक्तिना परिणमनमां जेटली अकंपता थई छे ते द्रव्यनी पर्याय छे, अने कर्मना निमित्ते जेटली कंपन दशा छे तेनो अकंपनदशामां अभाव छे. निर्मळ पर्याय प्रगटी तेमां व्यवहारनो अभाव छे; आ अनेकान्त छे, आ स्याद्वाद छे. निष्कंपशक्तिनुं परिणमन भावरूप छे, तेमां समस्त कर्मनो अभाव छे. मार्ग झीणो छे भाई! लोकोने अभ्यास नथी, बहारना संसारमां रखडवाना लौकिक अभ्यासमां जीवन व्यतीत करे छे; पण आ तो जिंदगी (व्यर्थ) चाली जाय छे भाई!
अमे तो नानी उंमरमां सात चोपडी सुधी अभ्यास करी लौकिक भणवानुं छोडी दीधुं हतुं; तेमांय सातमी चोपडीनी परीक्षा आपी न हती. ते वखते अमारा एक मित्र साथे भणता. ते केटलाक वर्ष बाद अमने भावनगर भेगा थई गया. त्यारे अमे तेमने पूछयुं-“हाल तमे शुं करो छो?” तो तेमणे जवाब दीधेलो-“हुं तो हजी अभ्यास करुं छुं” ल्यो, बावीस-बावीस वर्ष सुधी अभ्यास कर्या करे! समयसारकळशमां आचार्य श्री अमृतचंद्रदेव तो कहे छे- आ तत्त्वज्ञाननो छ मास तो अभ्यास कर. अरे, तुं पोते अंदर परमात्मा छे तेनी एक वार छ मास लगनी लगावी दे. अहाहा...! प्रभु, लागी लगन हमारी! एक वार लगन लागी पछी शुं कहेवुं? अंदर आहलादभर्यो चैतन्यनो स्वानुभव प्रगट थाय छे. आ बीजा (अरिहंतादि) परमात्मानी लगनी लागे ते परिणाम तो राग छे, पण अंदर निज परमात्मस्वरूप आत्मा छे तेनी लगनी लागे तो परम आल्हादकारी, परम कल्याणकारी समकित प्रगट थाय छे; अने त्यारे सर्व कर्मनो अभाव थतां जे चौदमा गुणस्थाने अयोगीदशा प्रगट थाय छे तेनो एक अंश प्रगट थई जाय छे.
अहाहा...! अनंतमहिमानिधान प्रभु आत्मा छे. यथार्थमां एनो महिमा भासे तो शी वात! समयसार नाटकमां छेल्ले जीव-नटनो महिमा कह्यो छे. त्यां कह्युं छे-“जीवरूपी नटनी एक सत्तामां अनंत गुण छे, प्रत्येक गुणमां अनंत पर्यायो छे, प्रत्येक पर्यायमां अनंत नृत्य छे, प्रत्येक नृत्यमां अनंत खेल छे, प्रत्येक खेलमां अनंत कळा छे, अने प्रत्येक कळानी अनंत आकृतिओ छे, -आ रीते जीव घणुं ज विलक्षण नाटक करनार छे.” पंडित श्री दीपचंदजीए पण शक्तिना वर्णनमां घणो महिमा कर्यो छे. अहाहा...! आवा निज चैतन्यमात्र आत्मानो महिमा जाणी अंतर सन्मुख परिणमे तेनुं शुं कहेवुं? एथी तो जीव सर्व कर्मोनो अभाव करी पूर्ण निष्क्रिय-निष्कंप, अभूतपूर्व सिद्धपदने पामे छे. आवी वात छे.
एक बीजो न्यायः शुभभाव छे तेमां शुद्धतानो अंश गर्भित छे. ज्ञाननो अंश वधीने केवळज्ञान थाय छे तेम शुभमां शुद्धनो अंश छे तो ते वधीने यथाख्यात चारित्र थाय छे. शुभमां जो गर्भित शुद्धतानो अंश न होय तो शुभराग वधीने कांई यथाख्यात चारित्र प्रगट थशे? ना, थई शके नहि. माटे शुभयोगमां गर्भित शुद्धता रहेली छे एम सिद्ध थाय छे.
हा, पण ते कोने लागु पडे? जेने ग्रंथिभेद थाय तेने. जेने रागनी एकता तूटी गई छे तेने शुभमां जे गर्भित शुद्धता पडी छे ते वधीने यथाख्यात चारित्ररूपे प्रगट थाय छे. ज्ञाननी शुद्धि वधे माटे चारित्रनी शुद्धि वधे एम छे नहि. आ वात पं. श्री बनारसीदासे उपादान-निमित्तनी चिट्ठीमां करी छे. त्यां कह्युं छे-विशेष एटलुं के गर्भित शुद्धता ए प्रगट शुद्धता नथी, ए बन्ने गुणनी गर्भित शुद्धता ज्यां सुधी ग्रंथिभेद थाय नहि त्यां सुधी मोक्षमार्ग साधे नहि, परंतु (जीवने) उर्ध्वता करे, अवश्य करे ज, (पण मोक्षमार्गना कारणरूप ते न थाय). ए बन्ने गुणोनी गर्भित शुद्धता ज्यारे ग्रंथिभेद थाय त्यारे ए बन्नेनी शिखा फूटे अने त्यारे ए बन्ने गुण धाराप्रवाहरूपे मोक्षमार्ग तरफ चाले.
पं. बनारसीदास ‘परमार्थ वचनिका’ ने अंते कहे छे-“(तत्त्व) वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत छे तेथी आ विचारो बहु शा लखवा? जे ज्ञाता हशे ते थोडुं लखेलुं (पण) बहु समजशे. जे अज्ञानी हशे ते आ चिट्ठी सांभळशे खरो, परंतु समजशे नहि. आ वचनिका जेम छे तेम-(यथायोग्य)-सुमतिप्रमाण केवळी-वचनानुसार छे. जे जीव आ सांभळशे, समजशे, श्रद्धशे, तेने कल्याणकारी छे-भाग्यप्रमाण”. अहाहा...! जुओ तो खरा! आ काळमां केवळज्ञानी तो अहीं छे नहि, ने विदेहमां भगवान पासे तो गया नथी, छतां वाणीमां आटलुं जोर? तो कहे छे-हा, सम्यग्दर्शन थतां आवी दृढता आवी जाय छे. अमे विदेहमां भगवान पासे गया नथी, पण अमारा भगवान आत्मा पासे गया छीए तेना जोरथी खूब दृढताथी अमे आ वात करीए छीए के अमारी आ वात केवळी वचनानुसार छे.
अहो! दिगंबर संतोनी तो बलिहारी छे, साथे समकिती गृहस्थोनीय बलिहारी छे. हवे आमांय केटलाक पंडितो अत्यारे विरोध करे छे. तेमने तत्त्वना स्वरूपनी खबर नथी, एटले पोतानी द्रष्टि प्रमाणे मेळ न खाय एटले विरोध करे छे. पण अरे भाई! सम्यग्द्रष्टि-चोथा गुणस्थानवर्ती धर्मी-जीवनी वाणी हो के पांचमा के छट्ठा गुणस्थानवर्ती संतोनी वाणी हो, तेमनां तत्त्वज्ञाननां बधांय कथन केवळीवचनानुसार छे, तेमां कोई फरक होतो नथी.