Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२३-निष्क्रियत्वशक्तिः १२१

चोथा गुणस्थानमां सम्यग्द्रष्टि जीवने निष्क्रियत्वशक्तिनी निष्कंप दशा अंशे प्रगट थई जाय छे. अहाहा...! मेरु हले तो प्रदेश हले-एवी निष्कंप दशानो एक अंश ज्ञानीने पर्यायमां प्रगट थाय छे; तेमां कर्मनिमित्तक कंपननो अभाव छे. निष्कंप पर्यायो क्रमवर्ती प्रगट थाय छे, अने गुणो अक्रमे रहे छे, ते क्रम अने अक्रमना समुदायने आत्मा कहेवामां आवेल छे. आत्माना स्वभावमां तो अकंपपणुं-अक्रियपणुं त्रिकाळ छे; अहीं पर्यायमां एकदेश अकंपता ज्ञानीने व्यक्त थाय छे एनी वात छे. पर्यायमां जेटलुं कंपन रह्युं छे तेनो आ अकंपदशामां अभाव छे.

शास्त्रमां चौदमा गुणस्थाने अकंपदशा कही छे ए पूर्ण अकंपतानी वात छे; ने तेथी तेरमा गुणस्थानमां सयोगदशा कहेवामां आवी छे. धर्मीने-समकितीने सम्यग्दर्शन प्रगट थतां द्रष्टिमां सर्व कर्मनो अभाव छे, निष्कंपन पर्यायमां कर्मनो अभाव छे, ने कर्मना निमित्ते जे कंपन छे तेनो पण अकंपनदशामां अभाव छे. ओहो...! बहु सूक्ष्म गंभीर वात. द्रष्टिनो विषय बहु सूक्ष्म छे भाई! अहा! दिगंबर संतो सिवाय आवी वात कयांय छे नहि. द्रव्य- गुणमां तो त्रिकाळ कंपननो अभाव छे, ने द्रव्यनी द्रष्टि थये समकितीने निमित्त कर्मना संगे जे कंपन बाकी छे तेनो तेनी अंशरूप अकंपनदशामां अभाव छे. आवो अद्भुत मारग छे बापु!

प्रश्नः– गुरुदेव, आपे तो बधाने निष्कंप बनावी दीधा! उत्तरः– प्रत्येक आत्मा निष्कंपस्वरूप ज छे भाई! निष्कंपता-निष्क्रियता तो आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. सक्रियपणुं-कंपनपणुं ए कांई आत्मानुं स्वस्वरूप नथी. अहाहा...! त्रिकाळ निष्क्रिय एक ज्ञायकभाव एवा निज आत्मद्रव्यनो अनुभव थतां पर्यायमां अकंपपणानुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! ते अकंपपणुं कारण अने कंपन तेनुं कार्य एम नथी, तेम ज कंपन कारण अने अकंपन तेनुं कार्य एम पण नथी. कंपन साधकदशामां छे खरुं, पण अकंपनरूप जे परिणमन थयुं तेमां कंपननो अभाव छे. शुद्धोपयोग छे तेमां अशुद्धोपयोगनो अभाव छे. ल्यो, आवी आत्मद्रष्टि थवी ते निष्कंप थवानो मार्ग छे. समजाणुं कांई...?

भगवान! तारामां अनंत गुण भर्या छे; तेमां एक अकंपन गुण छे. आ अकंपन गुणनुं अनंत गुणमां रूप छे; तेथी सर्व गुणो अकंपस्वरूप छे. कोई गुण ध्रुजता नथी. शास्त्रमां एक जग्याए एम वात आवी छे के जोगनुं कंपन छे तेमां धर्मास्तिकाय निमित्त नथी, केमके कंपनमां धर्मास्तिकायनुं निमित्त मानवामां आवे तो अकंपनमां अधर्मास्तिकायनुं निमित्त मानवुं पडे; पण एम छे नहि. माटे कंपनमां धर्मास्तिकाय निमित्त नथी. धर्मास्तिकाय तो गतिमां निमित्त छे, ने कंपन तो कर्मकृत औपाधिकभाव छे. आवो मारग बहु झीणो! कोई प्रबळ पुरुषार्थी जीव ज पामे छे. आवे छे ने के-

प्रभुनो मारग छे शूरानो, नहि कायरनुं काम जो ने

रागमां राचनारा कायर पुरुषोने आ वीतरागनो मारग प्राप्त थतो नथी. श्रीमद्दे पण लख्युं छे ने के-

वचनामृत वीतरागनां, परम शांतरस मूळ;
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.
रे गुणवंता ज्ञानी, अमृत वरस्यां रे पंचम काळमां...

अहो! दिगंबर संतोए पंचम काळमां अमृतनी धारा वरसावी छे. एकेक शक्तिमां केटलुं भर्यु छे? आ तो यथाशक्ति वात आवे छे. मुनिवरोना क्षयोपशमनी अने अंतरदशानी तो शी वात! अहाहा...! भगवान केवळीनी दिव्यध्वनिमां आ वात आवे, ने त्रण ज्ञानना धणी, एकभवतारी इन्द्रो सांभळवा आवे ते वात केवी होय प्रभु! अहीं आ अनेकान्त सिद्ध कर्युं के-अकंपशक्तिना परिणमनमां जे अकंपपणुं प्रगट थयुं तेमां कर्म अने कर्मकृत कंपननो अभाव छे. अकंपनदशा भावरूप छे, ने तेमां कंपननो अभाव छे. अकंपन पण छे, ने कंपन पण छे एवुं स्वानुभवनी स्वरूपद्रष्टिमां छे नहि. आत्मामां कंपन छे ज नहि.

उपर आवी गयुं छे के क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणनो समुदाय ते आत्मा छे. अहीं क्रमवर्ती पर्यायमां निर्मळताना क्रमनी वात छे. अक्रमवर्ती गुण तो त्रिकाळ निर्मळ छे ज, तेनी क्रमवर्ती अकंपननी दशाय निर्मळ छे. कंपन आत्मानी चीज छे ए वात अहीं स्वीकारी ज नथी; केमके कंपन आत्माना स्वभावनुं कार्य नथी. ज्ञाननी अनुभूतिमां ज्ञानीने कंपननो अनुभव नथी. अहाहा... कंपन वगरनो अकंपस्वभावी निष्क्रिय प्रभु आत्मा छे, अने सर्व कर्मोनो नाश थतां आत्मानो अकंपस्वभाव साक्षात् प्रगट थाय छे; सिद्धदशामां ते सादि-अनंत अविचल स्थिर-स्थिर रहे छे.

हे भाई! तारा आत्माना त्रिकाळी एक निष्क्रिय ज्ञानस्वभाव सामे जो, तारी अनंत शक्तिओनुं निर्मळ- निर्मळ