१२२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ परिणमन थई, पर्यायमांथी कंप छूटी, तने सादि-अनंत अकंप एवी पूर्ण सिद्धदशा प्रगटशे. ल्यो, -
‘जे अनादि संसारथी मांडीने संकोचविस्तारथी लक्षित छे अने जे चरम शरीरना परिमाणथी कांईक ऊणा परिमाणे अवस्थित थाय छे एवुं लोकाकाशना माप जेटला मापवाळुं आत्म-अवयवपणुं जेनुं लक्षण छे एवी नियतप्रदेशत्वशक्ति. (आत्माना लोकपरिमाण असंख्य प्रदेशो नियत ज छे. ते प्रदेशो संसार-अवस्थामां संकोचविस्तार पामे छे अने मोक्षअवस्थामां चरम शरीर करतां कांईक ओछा परिमाणेे स्थित रहे छे.)’
जुओ, समयसारमां आ शक्तिनो अधिकार चाले छे. शक्ति एटले शुं? के भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभावमात्र वस्तु छे ते द्रव्य छे. तेमां अनंत स्वभाव नाम गुण छे. गुण कहो के शक्ति कहो, ते एक ज वस्तु छे. आत्मा द्रव्य तरीके अभेद एक छे, अने शक्तिए (भेदथी) अनंत छे. आ अनंतनो (अनंत गुणनो) कथनविस्तार केम करी शकाय? एटले आचार्यदेवे अहीं ४७ शक्तिनुं वर्णन कर्युं छे. एम तो आत्मामां सामान्य गुणो अनंत छे, ने विशेष गुणो पण अनंत छे. ते अनंत गुणनो विस्तार करवा जाय तो अनंत काळेय पार न आवे, वळी शब्दो पण सीमित छे, ने ज्ञान (क्षायोपशमिकज्ञान) नी पण मर्यादा छे. तेथी टूंकामां आचार्य भगवाने अहीं ४७ शक्तिओनुं वर्णन कर्युं छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा परम पवित्र शुद्ध चैतन्यमय अनंतगुणरत्नाकर छे. ओहो...! शुद्ध चैतन्य शक्तिओनो सागर प्रभु आत्मा छे. अहा! तेनो अपरिमित महिमा छे; क्षेत्र भले शरीर प्रमाण होय, पण तेना पवित्र शुद्ध चैतन्यस्वभावमां परिमितता नथी, मर्यादा नथी. अहाहा...! एकेक शक्तिमां अनंत अनंत सामर्थ्य भर्युं छे. आवी अनंत शक्तिओनुं एकरूप, अभेद चिन्मात्रस्वरूप ते भगवान आत्मा छे. भाई! अहीं शक्तिनुं वर्णन तो पूरण एक अभेदने समजवा माटे छे. तेथी आ शक्ति अने आ शक्तिवान-एवो जे भेद छे तेनुं लक्ष दूर करी त्रिकाळी अभेद एक ज्ञायकनी द्रष्टि करतां शक्तिनुं निर्मळ निर्मळ परिणमन थईने तेनो स्वाद आवे छे. ज्ञाननो स्वाद, दर्शननो स्वाद, सुखनो स्वाद, जीवत्वनो स्वाद-एम अनंत शक्तिना एकरूपनो पर्यायमां स्वाद आवे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समजाय छे कांई...?
प्रश्नः– आ स्वाद शुं छे? उत्तरः– स्वानुभव थतां निज ज्ञानानंद स्वरूपनुं वेदन थाय छे तेने स्वाद कहे छे. आ दाळ, भात, लाडवा खाय त्यां स्वाद आवे छे ते जडनो स्वाद तो आत्माने आवतो नथी. ते जड पदार्थनुं लक्ष करीने आ ठीक छे एवी जे रागनी वृत्ति उठे छे तेनो तेने स्वाद आवे छे. वींछी करडे त्यां वींछीना डंखनुं-जडनुं एने वेदन नथी, पण तेना प्रत्ये जे अणगमो-द्वेष थाय छे ते द्वेषनुं तेने वेदन छे. भगवान आत्मा अरूपी चैतन्य द्रव्य छे, तेने जड पदार्थोनो स्वाद के वेदन न होय; पण पोताना स्वभावनुं लक्ष छोडी, अनुकूळ चीजमां राग करे ने प्रतिकूळ चीजमां द्वेष करे, त्यां तेने पर्यायमां रागद्वेषनो कलुषित स्वाद आवे छे. अरे! एणे पोतानुं ज्ञानानंद स्वरूप छे तेनो अकषायी निराकुल स्वाद कदीय लीधो नहि!
आत्मानुं क्षेत्र शरीरप्रमाण छे, पण तेनी शक्तिनुं सामर्थ्य तो अपरिमित अनंत छे. अहाहा...! संख्याए शक्तिओ अनंत अने एकेक शक्तिनुं सामर्थ्य पण अमाप... अमाप... अपरिमित अनंत छे. जुओ, लोकनी बधी बाजुए आकाश अनंत अनंत विस्तरेलुं छे. आ आकाशना प्रदेशो अनंत छे. प्रदेश एटले शुं? के एक परमाणु आकाशना जेटला क्षेत्रने रोके तेने प्रदेश कहे छे. आकाशना आवा अनंत अनंत प्रदेश छे, अने तेनाथी अनंत गुणा गुण एकेक जीवद्रव्यमां त्रिकाळ छे. भाई! स्वभाव छे तेने क्षेत्रनी महत्ता साथे संबंध नथी. स्वभावमां तो तेनी बेहद शक्ति-सामर्थ्यनी महत्ता छे. एकेक जीवमां आवी अनंत सामर्थ्ययुक्त त्रिकाळी अनंत शक्तिओ छे. तेमां अहीं नियतप्रदेशत्वशक्तिनुं वर्णन चाले छे.
प्रत्येक शक्ति द्रव्य-गुणमां त्रिकाळ व्यापक छे, अने पोताना त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि थये ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा पोते छे तेनो स्वीकार अने सत्कार थये ‘हुं त्रिकाळी सत् छुं, एम प्रतीति थईने पर्यायमां तेनुं परिणमन थाय छे, पर्यायमां तेनो स्वाद आवे छे.