१२४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ नहि एटले तेओ बहारमां-क्रियाकांडमां रोकाई जाय छे; पण भाई, निज स्वरूपनी ओळखाण विना ए बधुं कांई ज नथी; थोथां छे. ज्यां सुधी क्रियाकांडमां-रागमां मूढपणे रोकाई रहे त्यां सुधी स्वानुभव थवो संभवित नथी.
अहाहा...! भगवान आत्मा मूढ नथी; तेना ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुण शक्तिए अमूढ छे. भाई! आत्मामां अमूढ स्वभावनो पार नथी. अहाहा...! धर्मी-ज्ञानी एम अनुभवे छे के-हुं अपरिमित अनंत शक्तिओथी भरेलो चिदानंदकंद प्रभु अमूढ छुं अहाहा...! एक समयमां त्रणकाळ-त्रणलोकने जाणे एवी अनंत पर्यायोनो पिंड ज्ञान गुण मारामां पडयो छे; अहाहा...! पूर्णानंदनी प्रतीतिरूप सादि-अनंत पर्यायोनो पिंड श्रद्धा गुण मारामां पडयो छे; एक समयमां निर्बाध अनंत आनंदने आपे एवी सादि-अनंत आनंदनी पर्यायोनो पिंड आनंद गुण मारामां पडयो छे. अहाहा...! आवा अनंत गुणनो रत्नाकर प्रभु हुं आत्मा छुं. अरे, आवा पोताना आत्माने भूली, हे जीव! तुं आ आकुळतानी भट्ठीना वेदनमां कयां रोकाई गयो!
अहाहा...! पूर्णानंद-सच्चिदानंदस्वरूप चैतन्यचमत्कारमय प्रभु आत्मा छे. तेनो अंतरमां स्वीकार अने सत्कार कर्ये तेनी पर्यायमां ज्ञान ने आनंदनो स्वाद आवे छे. कह्युं छे ने के-
अहाहा...! त्यां वर्तमानमां जे आनंद प्रगट थयो ते भविष्यना पूर्ण आनंदनुं कारण छे. वर्तमान प्रगट ज्ञान ने आनंदनी दशाने पूर्ण आनंदनुं कारण कहेवुं ते व्यवहारथी छे. वास्तवमां तो एक समयमां जे पूर्ण आनंदनी दशा प्रगट थई ते तत्समयनी षट्कारकनी परिणतिथी प्रगट थई छे. भाई! पूर्वनी मोक्षमार्गनी पर्यायनो व्यय थयो माटे अहीं केवळज्ञान प्रगट थयुं एम वास्तवमां नथी, एम कहेवुं ए व्यवहार छे; केमके उत्पाद छे ते कांई व्ययनी अपेक्षा राखतो नथी. पूर्व पर्यायनो व्यय छे, वर्तमान पर्यायनो उत्पाद छे; तथापि उत्पादने व्ययनी अपेक्षा नथी. झीणी वात छे भाई! केवळज्ञाननी एक समयनी पर्याय ते कर्ता, जे पर्याय प्रगटी ते कर्म, ते पर्याय ज करण अर्थात् साधन, - पूर्वनी चार ज्ञाननी पर्यायनो व्यय ते साधन एम नहि, जे पर्याय प्रगटी ते पोतामां ज राखी ते संप्रदान, पर्याय पोतामांथी थई ते अपादान, अने पर्यायनो आधार ते पर्याय ते अधिकरण-आम पोताना षट्कारकना परिणमनथी केवळज्ञान उत्पन्न थाय छे. पूर्वनी चार ज्ञाननी पर्यायनो व्यय थयो माटे केवळज्ञान उपज्युं एम कहेवुं ए व्यवहारनुं कथन छे. अभाव थईने भाव थयो तो ते भाव कयांथी आव्यो? अभावमांथी नहि, पण द्रव्यमां सर्वज्ञत्व आदि शक्ति तेना नियत प्रदेशमां त्रिकाळ पडी छे अने तेमांथी शक्तिवान द्रव्यनो आश्रय लेतां पर्यायमां केवळज्ञान आदि पूर्ण दशा प्रगट थाय छे. आवी सूक्ष्म वात छे.
अहीं नियतप्रदेशत्वशक्तिनी वात चाले छे. कहे छे-आत्माना प्रदेशनी संख्या नियत-लोकप्रमाण असंख्य छे. अहीं प्रदेशनी संख्याने नियत-निश्चय कहेल छे; पंचास्तिकायमां अस्तिकाय द्रव्यनी सिद्धि करवी छे तेथी त्यां प्रदेशनी एकरूपतानी वात करी छे. आवी वात! हवे पोते केवो अने केवडो छे ते बहु गरज करीने, दरकार राखीने जाणे नहि तो धर्म केवी रीते थाय? अहा! एक राजाने-बादशाहने मळवा जवुं होय तो केटली तैयारी करीने जाय? तो अहीं तो भगवानना भेटा करवा जवुं छे, तो पछी तेमां केटली तैयार जोईए? अनंत अनंत अंतःपुरुषार्थनी साथे भेट बांधीने जाय तो भगवानना भेटा थाय. अहाहा...! त्रण काळ त्रण लोकने जाणवानुं सामर्थ्य राखे, अने ते पण एक समयमां, एवो अनंत शक्तिनो भंडार भगवान आत्मा सर्वोपरि चैतन्य बादशाह छे. एना भेटा करवा जवुं छे तो आ बहारनी -हीरा, माणेक, मोतीनी भेट काम नहि आवे, अने क्रियाकांडना रागनी भेट पण काम नहि आवे; अहा! ए तो अंतःपुरुषार्थ जाग्रत करी, एना स्वभावनी समीप जईने अनुभव कर्ये तत्काल दर्शन दे एवो ते परमात्मा छे. माटे हे भाई! बहारना कोलाहलथी विराम पामी अंतर्मुख था.
आ बहारना पैसा आदि संयोग तो पुण्य योगे मळे छे. ते संयोग हो के न हो; ते जीवने शरण नथी, ने व्रतादिनो राग पण शरण नथी, एक समयनी पर्याय पण शरण नथी. अंदर भगवान पूर्णानंदनो नाथ चिन्मात्रचिंतामणि स्वयमेव देव विराजी रह्यो छे ते एक शरण छे, ते मंगळ छे ने उत्तम छे. बहारमां जिनदेव, जिनगुरु, जिनधर्मने शरण, मंगळ ने उत्तम जाणवा ते व्यवहारथी छे.
अनादि संसारथी मांडीने जीवना प्रदेशोनो संकोचविस्तार थाय छे. निगोदनी दशामां जीवना प्रदेशोनो संकोच थाय तो पण प्रदेशोनी संख्या ओछी थती नथी ने हजार जोजनना मच्छना शरीरमां रहेला जीवना प्रदेशोनो विस्तार थाय