१३४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ केवळज्ञान एटले शुं? एक समयनी ज्ञाननी पर्याय जे भूत, भविष्य अने वर्तमान-एम त्रणकाळ, त्रणलोकने एक समयमां प्रत्यक्ष जाणे एनुं नाम केवळज्ञान छे. अहा! आवा अद्भुत सामर्थ्यरूप केवळज्ञाननी सत्ता जगतमां छे एनो निर्णय कयारे थाय? के पोतानो ज्ञानस्वभाव-केवळज्ञानस्वभाव अंदर त्रिकाळ छे तेनो अंतःपुरुषार्थ वडे निर्णय करे त्यारे थाय छे. अरे भाई! भगवानने केवळज्ञाननी दशा प्रगट थई ते कयांथी थई? ए तो प्राप्तनी प्राप्ति छे बापु! अंदर केवळज्ञान स्वभाव छे तेने कारणपणे ग्रहवाथी पर्यायमां स्वभावनी प्रगटतारूप केवळज्ञान प्रगट थयुं छे. अहा! आम जगतमां केवळज्ञान पर्यायनो निर्णय करवा जाय तेने अंदर पोतानो केवळज्ञानस्वभाव छे एम अंतरमां निर्णय थाय छे. आवो निर्णय थाय तेमां क्रमबद्धनो सम्यक् निर्णय थाय छे, अने आ ज पुरुषार्थ छे, केमके अंतर्मुख द्रष्टिना पुरुषार्थ विना सर्वज्ञ स्वभावनो निर्णय थतो नथी. पोताना सर्वज्ञस्वभावनी अंतर-प्रतीति थाय त्यारे ज सर्वज्ञ-पर्यायनी सम्यक् प्रतीति थाय छे.
हवे लोको तो बिचारा निमित्तमां अटकया छे. द्रव्यनी पर्याय निमित्तथी थाय एम तेओ माने छे. वळी तेओ कहे छे-उपादानमां योग्यता अनेक प्रकारनी छे, पण जेवुं निमित्त मळे तेवुं कार्य थाय छे. निमित्त कार्यनो नियामक छे एम तेओ माने छे; पण तेमनी आ मान्यता यथार्थ-सत्य नथी. अरे भाई! ज्यां सुधी निमित्त उपर द्रष्टि होय, राग उपर द्रष्टि होय, ने पर्याय उपर द्रष्टि होय त्यां सुधी स्वभावसन्मुखनो पुरुषार्थ जागतो नथी, ने पोताना सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय थतो नथी. पछी तेने केवळज्ञाननो ने क्रमबद्ध पर्यायनो सम्यक् निर्णय कयांथी थाय? न थाय, आ रीते निमित्ताधीन द्रष्टिवाळा बहिद्रष्टि बहिरात्मा ज छे, तेओ साचा देव-गुरुने प्राप्त थईने पण संसार परिभ्रमण ज साधे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! केवळज्ञाननी पर्यायनुं सामर्थ्य केटलुं? अनंत अनंत केवळीना पेटने जाणी ले तेटलुं. ओहो! आवुं केवळज्ञान अंदर ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ पडयो छे तेना आश्रये प्रगट थाय छे. अहाहा...! ज्ञानस्वभाव परिणमीने केवळज्ञान थयुं छे. आवा ज्ञानादि अनंत स्वभावो-गुणोनो पिंड प्रभु आत्मा छे. एक वार कह्युं हतुं के एक गुणमांथी पर्याय उठती नथी; पण आखुं द्रव्य छे तेनो स्वीकार थतां आखा द्रव्यमांथी परिणति उठे छे. तत्त्वार्थसूत्रमां भगवान उमास्वामीए पण ‘गुणपर्ययवत् द्रव्यम्’-एम सूत्र कह्युं छे. अंदरमां गुणनी परिणति भिन्न थाय छे ने द्रव्यनी परिणति भिन्न थाय छे एम नथी. पोतानी अनेक विशेषताओरूप द्रव्य ज परिणमी जाय छे. ल्यो, आम बतावीने त्रिकाळी अभेद द्रव्यनी द्रष्टि करवानुं शास्त्रमां कह्युं छे.
अहीं कहे छे-विलक्षण अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्वशक्ति छे. अहा! विलक्षण अनंत धर्मोने धरनारुं आत्मद्रव्य छे ते एक भावरूप छे. ज्ञाननुं लक्षण जुदुं, श्रद्धानुं जुदुं, आनंदनुं जुदुं-एम अनंत गुणनुं लक्षण जुदुं छे, तथापि ज्ञाननी वस्तु जुदी, श्रद्धानी वस्तु जुदी, आनंदनी वस्तु जुदी-एम कांई जुदी जुदी अनंत वस्तुओ नथी, वस्तु तो अनंत स्वभावोना एक भावरूप एक ज छे. एक साथे अनंत स्वभावोरूपे वस्तु तो एक ज प्रतिभासे छे, प्रतीतिमां आवे छे. अहा! आवी आश्चर्यकारी अद्भुत चीज आत्मा छे. विलक्षणता छतां एकरूपता, ने एकरूपता छतां विलक्षणता. विलक्षणता होवाथी क्षायिक सम्यग्दर्शन थवा छतां ते ज वखते बधा गुण क्षायिकभावे उघडी जता नथी, ने वस्तुपणे एकरूपता होवाथी, वस्तुना आश्रये परिणमन थतां, बधा गुणोनो एक अंश निर्मळ खीली जाय छे, उछळे छे. सम्यग्दर्शन थतां ज केवळज्ञान भले न होय, पण सम्यग्ज्ञान तो अवश्य होय ज छे, अने ए प्रमाणे बधा गुणनो एक अंश तो उघडी ज जाय छे. अहा! आवा अनंतधर्मस्वरूप निज आत्माने ओळखीने तेनो अनुभव करवो, तेनी अंतरसन्मुख थई परिणमवुं ते मोक्षमार्ग छे, मुक्तिनुं कारण छे.
अरे! लोकोए बहारमां व्रत, तप, भक्ति इत्यादि वडे धर्म थई जशे एम मान्युं छे. परंतु ए तो बधो शुभभाव-राग छे भाई! वस्तुमां तो ए चीज छे ज नहि; एनाथी पोतानुं कल्याण थवानुं मानवुं ए तो महान भ्रम अने पाखंड छे. अरे भाई! तारा अनंत धर्मो छे एमां शुभराग नथी. शुभराग तो पर्यायमां नवो उत्पन्न थाय छे. परना लक्षथी पर्यायमां रागादिभाव नवा उत्पन्न थाय छे.
द्रव्य-गुणमां विकार करे एवी कोई शक्ति नथी, तो विकार कयांथी आव्यो? पर्यायनी योग्यताथी, पोताना षट्कारकना परिणमनथी विकार उत्पन्न थाय छे; पोतानुं द्रव्य तेनुं कारण नथी, ने परद्रव्य पण तेनुं वास्तविक कारण नथी, पंचास्तिकायमां अस्तिकाय सिद्ध कर्यां छे त्यां अस्तिकायनी पर्यायमां षट्कारकनुं