१३६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ अने त्यारे अनंत धर्मोनुं भेगुं ज परिणमन थाय छे. बधा ज गुणो एक साथे परिणमे छे, पर्यायमां एकसाथे परिणत थाय छे, ने तेमां रागनो-विकारनो अभाव छे. आ अनेकान्त छे. व्यवहारनो अभाव ने निश्चयनो सद्भाव-एनुं नाम सम्यक् अनेकान्त छे.
‘तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी विरुद्धधर्मत्वशक्ति.’ जुओ, समयसारमां तत्-अतत् इत्यादि चौद बोल वर्णव्या छे त्यां एम लीधुं छे के-ज्ञायकस्वभावी आत्मा निज ज्ञायकस्वरूपथी तत् छे, ने परज्ञेयो तेमां नथी तेथी ज्ञेयस्वरूपथी अतत् छे. अहा! पोतामां जे ज्ञान आदि भाव छे ते वडे तत्पणुं छे, पण पोतामां जे भाव नथी ते वडे अतत्पणुं छे. आत्मा ज्ञानस्वरूपथी तत् छे, केमके आत्मा ज्ञानथी तद्रूपमय छे, पण आत्मा रागादिथी-ज्ञेयोथी अतत् छे केमके आत्माने रागादिथी-परज्ञेयथी अतद्रूपमयता छे. आवी वात! समजाणुं कांई...? अहा! आ रीते तत्पणुं अने अतत्पणुं एवा बन्ने विरुद्ध धर्मो एकी साथे जेमां रहेला छे एवा आत्मानो विरुद्धधर्मत्व स्वभाव छे.
समयसार, परिशिष्टमां ज्ञायक अने ज्ञेय वच्चे तत्-अतत् धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे. ज्ञायक ज्ञायकस्वरूपे पोताथी छे, अने ज्ञेयस्वरूपथी-परज्ञेयथी नथी एम त्यां तत्-अतत्भाव कहेल छे. पंचाध्यायीमां एम कह्युं छे के-वस्तु वस्तुपणे पोताथी तत् छे, ने परवस्तुपणे ते अतत् छे अर्थात् नथी. त्यां द्रव्य-गुण-पर्यायमां पण तत्-अतत्पणुं उतार्युं छे. अहो! आ तो अनेकान्तनुं एकलुं अमृत छे.
प्रत्येक वस्तु पोताथी छे ते तत्, अने परवस्तुपणे नथी ते अतत्; आवा तत्-अतत् धर्मो वस्तुमां एकी साथे रहेला छे एवी वस्तुनी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. अन्यमतमां तो आ वात छे ज नहि. अन्यमतमां तो एक ज आत्मा सर्वव्यापी छे एम माने छे, तेओ अनेकपणुं मानता नथी. परंतु जगतमां अनंत द्रव्यो छे. तेमां प्रत्येक द्रव्य पोताथी-पोताना स्वरूपथी छे, अने ते अनंत परद्रव्यपणे नथी आवो ज द्रव्य-स्वभाव छे, वस्तुस्वभाव छे. अहीं आत्मद्रव्यनी वात छे, तो कह्युं के-ज्ञान ज्ञानपणे छे, ने ज्ञेयपणे नथी. आ रीते तत्-अतत्पणुं ए आत्मनिष्ठ आत्माना धर्मो छे. अहा! ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा ज्ञेयनुं-रागादिनुं ज्ञान करे छे, पण ज्ञेय-रागादि तेमां छे नहि, तेनो अतत् स्वभाव रागादिने-परज्ञेयने अंदर प्रवेशवा देतो नथी. जुओ, आ आत्माने जीवित राखनारुं भेदज्ञान! आ तो अलौकिक चीज छे बापु!
पंचाध्यायीमां आवे छे के-तत्-अतत् अने नित्य-अनित्यमां शुं फेर छे? तेने, ते छे अर्थात् ते-रूपथी-स्वरूपथी ते छे ते तत्पणुं छे, ने तेने, ते नथी, अर्थात् पररूपथी ते नथी ते अतत्पणुं छे. आ तत्-अतत् धर्मो वस्तुनिष्ठ त्रिकाळी स्वभाव छे. नित्य-अनित्य धर्मो तो अपेक्षित धर्मो छे. वस्तु द्रव्यरूपथी त्रिकाळ छे ते नित्य, ने पर्यायरूपथी क्षणिक छे ते अनित्य. आम नित्य-अनित्य ए अपेक्षित धर्मो छे. आम बन्नेमां फेर-फरक छे.
अहीं कहे छे-आत्मामां एक साथे बे विरुद्ध शक्तिओ रहे छे एवी एनी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. ज्ञान पोताथी छे, ज्ञेयथी नथी-आम जे छे ते नथी एम विरोध थयो; पण आवा विरुद्ध धर्मो एकी साथे अविरोधपणे वस्तुमां रहे छे एवी आत्मानी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे. आ गुण छे, तेनी परिणमनरूप पर्याय छे. ज्यारे नित्य- अनित्य तो अपेक्षित धर्मो छे. द्रव्य कायम रहेवानी अपेक्षा नित्य कहेवाय, नित्य कोई गुण नथी, तेम तेनी कोई पर्याय होती नथी. तथा पर्याय पलटे छे ए अपेक्षा वस्तु अनित्य कहेवाय. अनित्य कोई गुण नथी, अने तेनी पर्याय थाय छे एम पण वस्तु नथी. नित्य-अनित्य अपेक्षित धर्मो छे.
आत्मानी विरुद्धधर्मत्वशक्ति छे ते तेनो स्वभाव-गुण छे. शक्ति कहो, गुण कहो के स्वभाव कहो-एक ज वात छे. आ शक्तिनुं तत्-अतत्पणे परिणमन पण छे. पोताना ज्ञानपणे ज्ञान रहे छे, अज्ञानपणे थतुं नथी; वीतरागता