वीतरागतापणे रहे छे, रागपणे थती नथी, आनंदनी दशा आनंदपणे रहे छे, दुःखपणे थती नथी-आम तत्- अतत्पणे वस्तु पोते परिणमे छे एवो आत्मानो विरुद्धधर्मत्व स्वभाव छे. आवो भगवाननो मारग छे.
अनेकान्तना चौद बोलमां तत्-अतत्नी साथे स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्ति, ने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ- भावथी नास्ति-एम बीजा आठ बोलनुं त्यां वर्णन कर्युं छे. पहेलां तत्-अतत्नी वात करी त्यां ज्ञान-ज्ञेय वच्चे तत्-अतत्पणुं कह्युं, अने पछी अस्ति-नास्तिना आठ बोलनुं वर्णन कर्युं छे. कुल चौद बोल उतार्या छे ते आ प्रमाणेः तत्-अतत्; स्वद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी अस्ति अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नास्ति; एक-अनेक; नित्य- अनित्य-आम चौद बोलथी अनेकान्तनुं स्वरूप समजाव्युं छे. अहा! आ अनेकान्त तो जीवना जीवननुं परम अमृत छे.
जीवने पोतानी पर्यायमां अनेक प्रकारे विपरीत शल्य होय छे; रागथी पण धर्म थाय, ने आत्मा परनुं पण कार्य करे इत्यादि अनेक प्रकारे जीवमां अनादिथी उंधां शल्य पडेलां छे. अनेकान्त तेनो निषेध करीने, असत्य अभिप्राय छोडावी, वस्तुनुं साचुं-सम्यक् ज्ञान करावे छे, ने सर्व विरोध मटाडी दे छे. अहा! विरोध मटाडवानो तेनो स्वभाव छे; केमके वस्तुमां परस्पर विरुद्ध शक्तिओ एक साथे भले हो, पण तेओ वस्तुनो विरोध नथी करती, बल्के वस्तुने नीपजावे छे, सिद्ध करे छे, प्रसिद्ध करे छे. तत्-अतत्पणुं वस्तुने वस्तुमां स्थापित करे छे. अहो! अनेकान्त एवो अभेद किल्लो छे के आत्माने ते सदा परथी भिन्न ज राखे छे, परना एक अंशने पण आत्मामां भळवा देतो नथी. अहा! अंतर्द्रष्टि वडे आवा निज स्वरूपने ओळखवुं ते अपूर्व सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.
प्रवचनसार गाथा २००मां एम कह्युं छे केः- “हवे, एक ज्ञायकभावनो सर्वज्ञेयोने जाणवानो स्वभाव होवाथी, क्रमे प्रवर्तता, अनंत, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूहवाळां, अगाध स्वभाव अने गंभीर एवां समस्त द्रव्यमात्रने-जाणे के ते द्रव्यो ज्ञायकमां कोतराई गयां होय चीतराइ गयां होय, दटाइ गयां होय, खोडाइ गयां होय, डूबी गयां होय, समाइ गयां होय, प्रतिबिंबित थयां होय एम-एक क्षणमां ज जे (शुद्ध आत्मा) प्रत्यक्ष करे छे, ... ते शुद्ध आत्माने, आ हुं मोहने उखेडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं”
आ तो आमां निमित्तथी कथन कर्युं छे. ज्ञेय संबंधी अहीं आत्मामां ज्ञान थयुं छे, बाकी ज्ञेय कांई ज्ञानमां आवतुं नथी, ज्ञान ज्ञेयपणे थई जतुं नथी. भाई! चारे पडखेथी सत्य समजवुं जोईए, नहींतर एकान्त थई जशे. समजाणुं कांई...?
केटलाक कहे छे-निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय एम मानो, नहींतर एकान्त थई जशे. अरे भाई! वस्तुस्थिति एम नथी. निमित्त तो परवस्तु छे. ते पोतानुं काम करे ने परनुं पण काम करे एम विरुद्धधर्मत्व नथी; ते पोतानुं काम करे अने परनुं काम न करे-एम विरुद्धधर्मत्व वडे वस्तु यथास्थित सिद्ध थाय छे; अने ते अनेकान्त छे. वस्तु परपणे थती ज नथी त्यां परनुं काम केवी रीते करे? माटे निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय एवी मान्यता मिथ्या शल्य छे.
वळी कोई कहे छे-व्रत, तप, भक्तिना शुभरागथी धर्म थाय एम मानो, नहींतर एकान्त थई जशे. अरे भाई! भगवान आत्मा निज ज्ञानस्वभावथी तद्रूप छे, ने विकारथी-शुभाशुभरागथी अतद्रूप छे. वळी स्वभावनुं भान थतां जे निर्मळ परिणति थई तेय स्वभावथी तद्रूप छे ने रागादिथी अतद्रूप छे. हवे राग, निर्मळ- वीतराग परिणतिथी तद्रूप ज नथी त्यां रागथी धर्म थाय ए वात कयां रहे छे? आ प्रमाणे रागथी धर्म थाय एवी मान्यता रागनी एकताबुद्धिरूप मिथ्या शल्य सिवाय कांई नथी; ए मिथ्या एकान्त छे.
अमे तो सं. १९८पमां संप्रदायमां हता त्यारे बोटादमां एक मोटी सभामां कहेलुं के-जे भावथी तीर्थंकर नाम कर्मनी प्रकृति बंधाय ते भाव धर्म नथी; केमके जे भावथी धर्म थाय ते भावथी कर्मबंध त्रणकाळमां थाय नहि. सभा तो वात बराबर सांभळी रही हती, पण अमारी पासे अमारा गुरुभाई बेठा हता तेमने आ वात न रुची एटले तेओ ऊभा थईने चाल्या गया हता. ए सभामां अमे बीजी वात पण कही हती के-पंचमहाव्रतना परिणाम आस्रव छे, धर्म नथी. मार्ग तो आवो छे; धर्मना परिणाम तो अबंध स्वभावी होय, जेनाथी बंध थाय ते भाव धर्म केम होय? न होय. तेनाथी धर्म मानवो ए तो महा अधर्म छे, अनर्थ छे, विपरीतता छे.