Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१३८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

भगवान आत्मा त्रिकाळी शुद्ध द्रव्य छे ते अबंधस्वभावी छे, ने तेना परिणाम-मोक्षमार्गरूप परिणाम पण अबंधस्वभावी ज छे. अबंध परिणाम बंधननुं कारण थाय एम कदीय बने नहि. तेथी जे वडे बंधन थाय ते शुभराग धर्म नथी. वास्तवमां जे बंधमार्ग छे ते अधर्म छे. आवी वात अमे संप्रदायनी सभामां मूकेली. त्यारे लोको विश्वास राखी बराबर सांभळता. ते वखते अमे दिगंबर शास्त्रो वांचता हता, पण अमारा प्रत्ये कोई शंका न करतुं. आदिपुराण, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, समयसार, प्रवचनसार-आ बधां दिगंबर शास्त्रो अमे वांचेलां. अमे तो एम स्पष्ट कहेता के-आमां (संप्रदायमां) आवी गया छीए माटे आमां ज रहीशुं एम नथी; वात फेरफारवाळी लागशे तो अमे क्षणमात्रमां संप्रदाय छोडी दईशुं. (बन्युं पण एम ज).

अहीं कहे छे-पोतानुं ज्ञानस्वरूप पोताथी तत्स्वरूप छे, ने ते परथी-ज्ञेयथी-रागथी अतत्स्वरूपे छे. अहा! आनंदस्वरूप पोते छे तेनी परिणति पण आनंदरूप ज होय छे; ते परिणति परद्रव्यरूप, परज्ञेयरूप के दुःखरूप होती नथी; आनुं नाम अतत् छे. पोताना स्वभावना अस्तित्वपणे, स्वभावने अनुसरीने परिणति होय छे ते तत्, अने ते परना-परभावना अभावरूप छे ते अतत्, अहा! आवो विरुद्धधर्मत्व नामनो जीवनो गुण-स्वभाव छे.

निश्चयथी (निश्चयना आश्रये) पण धर्म थाय ने व्यवहारथी (व्यवहारना आश्रये) पण धर्म थाय एवी मान्यतामां तो विरुद्धधर्मत्वशक्ति न रही, एमां तो विरुद्धधर्मत्वनो अभाव थयो. पण विरुद्धधर्मत्व तो (जीवनो स्वभाव) छे ज. निश्चयथी धर्म थाय, ने व्यवहारथी धर्म न थाय-एम विरुद्धधर्मत्व छे. अहाहा...! ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मा छे ते ज्ञान ने आनंदरूप परिणमे छे, ने ज्ञेयरूप ने व्यवहाररूप थतो नथी ते आ विरुद्धधर्मत्वशक्तिनुं कार्य छे. भाई! अनेकपणुं माने तो विरुद्ध (विरुद्धधर्मत्व) सिद्ध थाय, बधुं एक आत्मा माने तेने विरुद्ध सिद्ध न थाय. वेदांती एक सर्वव्यापक चैतन्य आत्मा माने छे तो त्यां एकमां विरुद्धशक्ति कयांथी सिद्ध थाय? न थाय.

अहा! पोते स्वसन्मुख थई परिणमतां भेगुं विरुद्धधर्मत्व स्वभावनुं परिणमन थाय छे, अने तेमां राग अने परना परिणामनो अभाव होय छे केमके शक्तिनी परिणति राग अने परना परिणामथी अतत्स्वरूपे छे. आम व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात अहीं उडी जाय छे. शक्तिना वर्णनमां द्रव्य-गुण अने तेनी निर्मळ पर्यायनी वात छे. शक्ति निर्मळ छे, ने तेनुं परिणमन पण निर्मळ होय छे, विकारनुं परिणमन तेमां समातुं नथी. अहा! वस्तुने पोताना स्वभावथी तद्रूपमयता छे, ने परथी अतद्रूपमयता छे. आवो वस्तुस्वभाव छे. तेथी भगवान आत्मा व्यवहार अने परद्रव्यथी अतद्रूपमय छे. राग अने परद्रव्यना स्वभावनो शक्तिना परिणमनमां अभाव छे तो हवे शरीर ने जड कर्म तो कयांय रही गयां; कर्मनो तो अभाव ज छे, केमके कर्मथी अतद्रूपमय आत्मानो स्वभाव छे. अज्ञानी कहे छे के कर्मना उदयथी विकार थाय छे, पण अहीं तेनो निषेध करे छे.

प्रश्नः– तो शुं कर्म कांई ज नथी.? उत्तरः– कर्म छे ने, पण कर्म कर्ममां छे, आत्मामां ते कांई ज नथी. आत्मा पोताना चैतन्यमय द्रव्य-गुण- पर्यायो साथे एकरूप-तद्रूप छे, परंतु कर्मथी अतद्रूप छे; जुदो छे. जो आम न होय तो जड-चेतननो विभाग मटी जतां आत्मा अने जड बन्ने एकमेक थई जाय, अथवा तो वस्तुनो ज अभाव थई जाय. पण एम छे नहि.

कर्मनो उदय अने विकार बन्नेथी आत्मा अतद्रूपमय छे. विकार विकारमां रहे छे; विकारनी परिणति छे ते निर्विकार परिणमनमां आवती नथी. निश्चयथी तो विकारने (आत्मानी) वस्तु ज गणवामां आवी नथी; विकार पर्यायमां छे तेने परमार्थे परवस्तु गणवामां आवे छे. भाई! व्यवहार रत्नत्रयनो जे विकल्प छे ते शुभराग छे, तेने ज्ञानी पोताना स्वरूपमां गणतो नथी, तेनुं ते स्वामित्व ने कर्तापणुं राखतो नथी.

चारित्र गुण छे ते वीतरागतापणे परिणमे छे, रागपणे नहि, रागथी ते अतद्रूपमय छे; आनंद गुण छे ते आनंदरूपे परिणमे छे, दुःखपणे नहि, दुःखथी ते अतद्रूपमय छे. आम तद्रूपमयता अने अतद्रूपमयता ए विरुद्धधर्मत्वशक्तिनुं लक्षण छे. भगवान आत्मामां अनंत गुणो-धर्मो छे. ते बधा निर्मळ-पवित्र छे, ने ते पोतानी निर्मळ परिणतिमां तद्रूप-तन्मय छे, अने रागादि विकारमां ने परद्रव्यमां अतद्रूप-अतन्मय छे. अनंत गुणनुं तन्मय परिणमन थाय छे, अने विकार तथा परनुं अतन्मयरूप परिणमन थाय छे. विकारमां आत्मा ने आत्मानी परिणति तन्मय नथी. वास्तवमां विकार ने व्यवहारनुं परिणमन आत्माना अस्तित्वमां छे एम गणवामां आवतुं नथी. आ तो वर्षोथी चालती आ वातनुं विशेष स्पष्टीकरण करवामां आवे छे. आ तो घूंटीघूंटीने दृढ करवुं जोईए भाई!