शुभभावने अशुचि, जड अने दुःखना कारण कह्या छे, ने ७४मी गाथामां तेने वर्तमानमां दुःखरूप अने भविष्यमां दुःखना कारणरूप कह्या छे.
प्रश्नः– तो पछी अमारे शुं करवुं? उत्तरः– ए तो कहीए छीए के-रागथी भिन्न थई अंतर-स्वभावनो अनुभव करवो, स्वभावमां तद्रूप थई परिणमवुं. आनुं नाम धर्म छे. बाकी रागनी रुचि छे, परवस्तु देह ने धनादिमां तन्मयता छे ए तो अज्ञान छे, मूढ पणुं छे.
अहा! तत्त्वशक्ति छे ए तो ध्रुव त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन थया विना आ (-शक्ति) छे एनी प्रतीति कयांथी थाय? अहा! अतीन्द्रिय आनंदरूपे परिणमवुं, ज्ञातापणे परिणमवुं, अकषाय वीतरागभावरूपे परिणमवुं तेने तद्रूप भवनमय तत्त्वशक्ति कहे छे. अहा! आ शक्तिना वर्णनमां तो घणी गंभीरता छे. जेम ‘जगत्’ शब्दमां केटलुं समाई जाय छे? छ द्रव्य, तेनां गुण-पर्याय, अनंत सिद्ध, अनंतानंत निगोदराशि इत्यादि बधुं ‘जगत्’ शब्दमां समाई जाय छे, तेम आ तत्त्वशक्तिमां घणुंबधुं समाय छे. अहा! पोताना स्वस्वरूपे-एक चैतन्यरूपे तद्रूप परिणमन थाय तेनुं नाम तत्त्वशक्ति छे, तेमां रागनो अभाव छे, केमके चैतन्यमां रागनो अंश नथी.
आ शरीर तो जड माटी-धूळ छे भाई! भगवान आत्मामां तेनो सदाय अभाव छे. अरे, पण एने कयां पडी छे के भविष्यमां शुं थशे? अहीं मनुष्यदेहनी स्थिति तो पचीस-पचास, सो वर्षनी छे. खबरेय न पडे ने देह फू थईने उडी जाय. अहींथी देह छूटया पछी कयां जईश भाई? कयां उतारा थशे? कांई विचार ज नथी, पण आत्मा तो अनादि-अनंत वस्तु छे, एटले ते अनंत काळ रहेशे; पण आ देहनी रुचिमां ते कयांय चारगतिमां रझळशे- आथडशे. समजाय छे कांई...?
अरे! लोको तो शरीर, बैरां-छोकरां ने धंधा-वेपारमां सलवाई गया छे. अरेरे! आ धंधानी लोलुपतावाळा जीवो तो मरीने कयांय पशुमां अवतार लेशे; केमके तेमने तद्रुप भवनमय धर्म तो प्राप्त थयो नथी, अने पुण्यनां पण कांई ठेकाणां नथी. साचा वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रनुं सेवन करवुं ते पुण्य छे, एय तेमने नथी. धंधानी लोलुपता ने विषय-भोगनी प्रवृत्ति आडे एमने धडीनीय नवराश नथी. परंतु भाई! ए बधुं धूळनी धूळ छे बापु! एमांनु कांई तारा स्वरूपमां आवे एम नथी.
शास्त्रमां आवे छे के मनुष्यनो भव अनंतकाळे मांड एक वार आवे छे. अने तोय अने अनंत वार मनुष्यनो भव मळ्यो छे. अहा! जेटला अनंत भव एणे मनुष्यना कर्या छे एनाथी असंख्यात गुणा अनंत भव एणे नरकना कर्या छे; अने जेटला भव एणे नरकना कर्या छे एनाथी असंख्य गुण अनंत भव एणे स्वर्गना कर्या छे. नारकी तो मरीने स्वर्गे जता नथी, ने मनुष्यो बहु थोडा छे. संज्ञी पंचेन्द्रिय पशु मरीने स्वर्गे जाय छे. अढी द्वीपनी बहार घणां पशु छे तेमांथी मरीने शुभभावना फळमां घणा जीवो स्वर्गमां जाय छे. जीवे स्वर्गना जेटला भव कर्या छे तेनाथी असंख्य गुणा अनंत भव तिर्यंचना कर्या छे. एक श्वास लेवाय एटला समयमां तो जीव निगोदमां अढार भव करी ले छे. अहा! जीवे अनंत काळ निगोदमां वीताव्यो छे. आम चार गतिनी रझळपट्टीमां एणे दुःख ज दुःख-पारावार दुःख उठाव्युं छे.
अहीं एक कांटो वागे तो केवुं दुःख थाय छे? राड पाडी जाय छे. एक कांटो वागतां भारे दुःखी थाय छे. पहेली नरकमां ओछामां ओछी दस हजार वर्षनी आयुष्यनी स्थितिमां आना करतां अनंतु दुःख छे; ने निगोदना दुःखनुं तो शुं कहेवुं? भगवान सिद्धनुं अनंत सुख ने निगोदनुं अनंत अनंत दुःख-तेनुं कथन केम करी करवुं? भाई! तें आवा दुःखमां अनंत काळ वीताव्यो छे. अहीं ए दुःखथी निवृत्तिनो आचार्यदेव उपाय बतावे छे.
कहे छे-एक वार सांभळ तो खरो प्रभु! अहीं अमे भवनो अभाव करवानो उपाय तने कहीए छीए. अहा! तारी वस्तुमां एक तत्त्वशक्ति नामनी शक्ति पडी छे. तेनुं तद्रूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे. अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे; तेमां एकाग्र थई तेना आश्रये परिणमतां ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप-एवुं तद्रूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे. भाई, शक्तिनुं तद्रूप परिणमन थाय तेने ज अहीं आत्मा कह्यो छे. शक्तिना परिणमनमां विकारनी वात ज नथी. विकार तो बहारनी चीज छे. अहीं तो क्रमवर्ती निर्मळ पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणोना समुदायने आत्मा कहेवामां आव्यो छे. ए तो प्रथम ज कहेवाई गयुं के-“ ज्ञानमात्रमां अचलितपणे स्थापेली द्रष्टि वडे, क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्ततो, तद्-अविनाभूत अनंतधर्मसमूह जे कांई जेवडो लक्षित थाय छे, ते