१४२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ सघळोय खरेखर एक आत्मा छे.” आम आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे तेनुं तद्रूप-ज्ञानरूप, आनंदरूप, वीतरागतारूप परिणमन थाय ते भवना अंतनो उपाय छे.
बहु झीणी वात छे प्रभु! अत्यारे तो धर्मना नामे बहु गोटा उठया छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना शुभभावमां लोको धर्म मानी बेठा छे, पण ए मान्यता तो मिथ्या छे बापु! अहीं कहे छे-सम्यग्दर्शनस्वरूप जे पोतानी चीज अंदर अखंड एकरूप छे ते ध्येयरूप निज वस्तुमां एक तत्त्वशक्ति पडी छे. तेनुं तद्रूप-ज्ञाताद्रष्टारूप, वीतरागतारूप, आनंदरूप परिणमन थाय ते तत्त्वशक्तिनुं स्वरूप छे. हवे आवो उपदेश कदी सांभळ्यो न होय, ने मात्र मूढपणे जिंदगी व्यतीत कर्ये जाय. बहारमां कदाचित् डाह्यो गणाय तोय शुं? ए ते कांई डहापण छे? पोताना हाथमां रहेलुं हथियार पोतानुं ज गळुं कापे तो ए हथियार शुं कामनुं? तेवी रीते जे डहापणथी तारा भव वधी जाय ते डहापण शुं कामनुं? ए तो नरी मूढता ज छे.
आ तत्त्वशक्ति छे ते त्रिकाळ ध्रुव छे. तेना परिणमनमां तेनी प्रतीति थाय छे. परिणमन थया विना तेनी प्रतीति कयांथी थाय? आत्मा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप त्रिकाळ छे, पण पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदना रसनुं वेदन आव्या विना अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपनी प्रतीति कयांथी आवे? कारण तो त्रिकाळ ध्रुव छे, तद्रूप कार्य थाय तेमां कारणनी प्रतीति आवे छे, अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समजाणुं कांई...? तत्त्वद्रष्टि बहु सूक्ष्म छे बापु! पण तेना विना बधुं धूळधाणी छे. आ देहना रजकण तो गमे त्यारे साथ छोडी देशे, ने तत्त्वदृष्टि विना ए चोरासीना चक्करमां ए कयांय अटवाइ जशे. भाई, हमणां ज तत्त्वद्रष्टिनो पुरुषार्थ कर.
पण तत्त्वद्रष्टि बहु कठण छे ने? हा, कठण छे; अनंत काळमां तत्त्वद्रष्टि करी नहि तेथी कठण कही छे, पण ते अशकय नथी. कळश टीकामां आवे छे के आ वस्तु समजवी अति कठण छे, पण शुद्ध स्वरूपनो विचार करतां आनंदनो अनुभव थाय छे. शुद्ध स्वरूपनुं अंतर्मुख अनुभवन-तद्रूप-ज्ञानानंदरूप भवन करतां आवो अनुभव थई शके छे. अरेरे! पुरुषार्थ शुं कहेवाय तेनी लोको ने खबर नथी. आ कर्युं ने ते कर्युं-एम अनेक प्रकारना मिथ्या विकल्पो करे तेने लोको पुरुषार्थ कहे छे. बधा आंधळे-आंधळा होय त्यां शुं थाय? चालनारोय आंधळो ने मार्ग देखाडनारोय आंधळो; पछी बन्ने कूवामां (संसारमां) ज पडे ने!
अहा! ३२ लाख विमाननो स्वामी सौधर्म-इन्द्र इन्द्राणी साथे भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. अहा! ते वाणीनुं शुं कहेवुं? तथापि इन्द्र ते वाणीमां ने तेने सांभळवाना रागमां तन्मय नथी. मारी पर्यायमां वाणीनी ने रागनी नास्ति छे एम ते माने छे. हवे ओला ३२ लाख विमाननुं स्वामीपणुं तो कयांय जतुं रह्युं. ए तो ए बधाने परज्ञेयपणे जाणे छे. अहो! सम्यग्द्रष्टि पुरुषो आवी तत्त्वद्रष्टि वडे बहारमां कयांय गुंचाता नथी, मुंझाता नथी.
अहा! तद्रूपभवनमय तत्त्वशक्ति छे. आ तत्त्वशक्ति द्रव्य-गुण ने पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! शक्ति शक्तिपणे त्रिकाळ छे, ते पर्यायमां क्यारे व्यापक थाय? के तत्स्वरूप उपर द्रष्टि थईने परिणमन थाय त्यारे ते पर्यायमां व्यापक थाय छे. अहा! आम शक्ति पर्यायमां व्यापक थतां द्रव्य तत्स्वरूप त्रिकाळ, गुण तत्स्वरूप त्रिकाळ ने वर्तमान पर्याय पण तत्स्वरूप प्रगट थाय छे, ने आनुं नाम धर्म छे. हवे केटलाकने तो द्रव्य-गुण-पर्याय शुं एय खबर न होय अने माने के एम जैन छीए, पण बापु जैन कांई संप्रदायनी चीज नथी, ए तो वस्तुना तद्रूप परिणमनस्वरूप छे. अरे भगवान! तारुं रूप शुं, तारुं स्वरूप शुं ने तारुं तद्रूप भवन शुं-ए बधुं समज्या विना तने धर्म कयांथी थशे?
आगळ स्वधर्मव्यापकत्वशक्तिनुं वर्णन आवी गयुं. तेमां कह्युं के-राग छे ते परधर्म छे, ते रागमां आत्मा व्यापक नथी. अहीं कहे छे-तत्स्वरूप परिणमन थाय ते तारुं रूप छे. ज्ञान ने आनंदनुं परिणमन थाय ते रूप तत्त्वशक्ति छे, ने ते तत्त्वशक्तिमय तुं भगवान आत्मा छो. ओहो! आ तारी चैतन्य ऋद्धि-संपदाने जरा जो तो खरो! तारामां शुं भर्युं छे तेनी आ वात चाले छे. प्रभु! तुं धूळनी संपदामां मूर्छा पामी मूढ थई गयो छो, पण तारी चैतन्यवस्तुमां अनंत चैतन्यसंपदाओ-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य आदि अनंत गुण संपदाओ भरपुर भरी छे. अहाहा...! जेनी द्रष्टि करतां तुं न्याल थई जाय एवो भगवान! तुं कारणपरमात्मा छो.
एक वखते प्रश्न थयेलो के-कारण परमात्मा छे तो तेनुं कार्य आववुं जोईए ने? त्यारे कहेलुं-कारणपरमात्मा तो अंदर त्रिकाळ छे, पण तेनुं परिणमन थाय तेमां तेनी प्रतीति थाय ने?