Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२९-तत्त्वशक्तिः १४३

अंतर-प्रतीति थया विना कारणपरमात्मा कोने कहेवो? तत्स्वरूपनी-शुद्ध एक ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि करीने, ज्ञानमां पोताना स्वद्रव्यने ज्ञेय बनावी, तेनी अंतर-प्रतीति करे तेने, हुं आ कारणपरमात्मा छुं एम प्रतीति थाय छे. तेने कारणपरमात्मा प्रसिद्ध थाय छे, ने तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि कार्य प्रगट थाय छे. पण जे अंतर्मुख द्रष्टि करतो नथी तेने कारणपरमात्मा कयां छे? तेने तो ते होवा छतां नहि होवा बराबर ज छे.

अहा! परना प्रेममां ते पोताना प्रभुने भूली गयो छे. आखो दिवस बस रळवुं-कमावुं ने बैरां-छोकरां साचववां -एम परमां ज ते रोकाई गयो छे. आम तेने पोताना स्वरूप-स्वद्रव्य प्रत्ये अरुचि-द्वेषनो भाव वर्ते छे. “द्वेष अरोचक भाव”-जेने स्वरूप रुचतुं नथी, परवस्तु रुचे छे तेने स्वरूप प्रत्ये द्वेष छे. जेने रागनी रुचि छे, जे रागमां तन्मय छे, तेने पोताना ज्ञानस्वभावमय अंतःतत्त्व प्रत्ये द्वेष छे. स्तुतिमां आवे छे ने के-

संभवदेव ते धुर सेवो सवे रे, लही प्रभु सेवन भेद;
सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय, अद्वेष, अखेद.

अज्ञानी भय पामीने चंचळ थाय छे, तेना परिणाम अंदर स्वस्वरूपमां जता नथी; तेने स्वरूपनो भय छे, स्वरूप प्रत्ये तेने द्वेष छे, अंदर प्रवेशतां तेने भय अने खेद थाय छे.

भय चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक भाव.

अहा! स्वरूपमां जतां अज्ञानीने भय अने खेद-थाक लागे छे, तेथी तेने स्वरूप प्रत्ये द्वेष वर्ते छे. पण अरे भाई! तारुं स्वरूप तो अभय, अखेद छे. अहा! एकेक शक्तिमां आचार्यदेवे केटकेटलुं रहस्य भर्युं छे! एक शक्तिनो ख्याल आवे तो अनंत शक्तिमय वस्तुनो ख्याल आवी जाय एवी आ वात छे. आचार्य जयसेनदेवे कह्युं छे के-एक भावने यथार्थ जाणे तो अनंत भाव यथार्थ जाणवामां आवी जाय छे.

अहा! सर्वज्ञ परमात्मा जेओ पूर्ण तत्त्वस्वरूप परिणमीने सर्वज्ञत्व, ने सर्वदर्शित्वरूप दशाने प्राप्त थया ते भगवानना श्रीमुखेथी आ वाणी नीकळी के-तारुं स्वरूप मारी जेम पूर्ण तत्त्वशक्तिमय छे. शरीररूपे थवुं, ने रागरूपे थवुं एवुं तारुं स्वरूप नथी. शरीर-हाडमांसनुं पोटलुं तो जड माटी धूळ छे. शरीरनी क्रिया थाय तेय जडनी क्रिया छे, ने दया, दान, व्रत, भक्तिना विकल्प उठे तेय जडना संगे थयेला जडरूप परिणाम छे, ते चैतन्यना तद्रूप भवनरूप नथी. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्यार्थ छे.

अहा! लोको अनादिथी पापना फंदमां फसाई रह्या छे. त्यांथी नीकळे तो दया, दान, व्रत, आदि बाह्य क्रियाकांडमां रोकाई जाय छे. पण एय बधो विकल्प-राग छे, ने रागरूपे थवुं ए तद्रूप भवनमय शक्तिनुं कार्य नथी. अरेरे! अज्ञानी जीवो शुभरागनी क्रियानुं शुद्धतानुं कारण मानी धर्मना बहाने रागनुं ज सेवन करे छे! पण अरे भाई! ए क्रियाना प्रेममां तें तारी चीजने मरणतुल्य करी नाखी छे, पोताना त्रिकाळ सत्ने तें हणी नाख्युं छे. सवारे टेपरेकोर्डींगमां कळशटीकानो कळश २८मो चाल्यो हतो. बहु ज सरस वात आवी हती. शेठ तो खुश थई बोली उठेला-“दिव्यध्वनि नीकळी.” अरे भगवान! भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मीथी भरपुर तारी चीज भरी छे. तो सर्व भेदविकल्पनुं लक्ष छोडी अंतर्मुख लक्ष कर, जेथी आनंदनो अनुभव प्रगट थशे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

अहा! भगवान जिनेन्द्रदेव, सर्वज्ञ परमात्मा एम फरमावे छे के तद्रूप भवनरूप तारी शक्ति छे, तारामां तद्रूप परिणमननुं सामर्थ्य छे. तारा पुरुषार्थमां आवुं सामर्थ्य भर्युं छे, केमके तद्रूप थवारूप तत्त्वशक्तिनुं पुरुषार्थ शक्तिमां रूप छे, पुरुषार्थमां पोते शुद्धत्वरूप परिणमे एवुं तत्त्वशक्तिनुं रूप छे. समजाणुं कांई...?

भाई! आचार्यदेव तने भगवान कहीने बोलावे छे. ७२मी गाथामां आचार्यदेवे आत्माने ‘भगवान आत्मा’ कहीने जगाडयो छे. जेम माता बाळकने झुलामां झुलावे त्यारे मीठां हालरडां गाई तेनी प्रशंसा करे छे, ने तेने सुवाडे छे. बाळकने अव्यक्तपणे प्रशंसा प्रिय होय छे. तेम संतो तने जगाडवा माटे तारा स्वरूपनां मीठां गीत गाय छे. अरे भाई! तारा गुणनां मीठां-मधुरां गीत शुं तने प्रिय नथी? जाग नाथ! जाग; चैतन्यनी चमत्कारिक शक्तिथी भरेलो भगवान! तुं सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा छो. तद्रूप भवनरूप तारा स्वभावने भूलीने दया, दान आदि रागना प्रेममां तें तारा चैतन्यदेवने मरणतोल करी नाख्यो छे. रागना प्रेममां प्रभु! तारी चैतन्यसंपदा हणाई-लूंटाई रही छे.

केटलाक तो वळी एम माने छे के-आ धंधापाणीमां ने विषयमां लक्ष जाय तेने राग कहेवाय, पण व्रत, तप,