१४४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ भक्ति, पूजा इत्यादिना विकल्प कांई राग न कहेवाय, ए तो धर्म कहेवाय. अरे भाई! रागना स्वरूपनी तने साची समज नथी. ए सर्व क्रियाकांडमां लक्ष जाय ते भाव पण राग छे, बंधनुं कारण छे, दुःखरूप छे. ते भाव कांई चैतन्यना तद्रूप परिणमनरूप नथी.
प्रश्नः– तो शास्त्रोमां व्रत-तप आदि परिणामने धर्म कह्यो छे? उत्तरः– हा, ए तो धर्मी पुरुषनी धर्म परिणतिनो सहचर जाणीने आरोप दई उपचारथी तेने (व्रतादिना विकल्पने) धर्म कह्यो छे. ते उपचारमात्र समजवो, ते कांई वास्तविक धर्म नथी.
प्रश्नः– तो पछी शुं करवुं? उत्तरः– राग अने ज्ञान वच्चे सहज ज भिन्नता छे तेनुं भान करी भेदज्ञान करवुं; रागनुं लक्ष छोडी, स्वभावनुं ग्रहण करवुं. ल्यो, आनुं नाम धर्म छे. धर्मी पुरुषने राग आवी जाय छे पण तेमां तेने हेयबुद्धि होय छे, तेमां एने कर्ताबुद्धि अने स्वामित्व होतां नथी. शुभरागने उपादेय मानवाथी, आदरणीय मानवाथी भगवान चिदानंदस्वरूपनो अनादर थई जाय छे. राग हेय छे तेने उपादेय मानवाथी चिद्रूप, तद्रूप भवनमय भगवान आत्मानो द्रष्टिमां अभाव थई जाय छे; कळशमां आव्युं छे के-मरणने प्राप्त थाय छे.
भगवान! ज्ञान अने आनंदमय तारुं जीवन छे. जीवनशक्तिथी शक्तिनो अधिकार शरु कर्यो छे ने? अहाहा...! जीवनशक्तिमां तत्त्वशक्तिनुं रूप छे, ने तत्त्वशक्तिमां जीवनशक्तिनुं रूप छे. एटले शुं? के भगवान आत्मानुं तत्त्व जे ज्ञानानंदस्वभावमय छे ते-रूपे-तद्रूप परिणमन करवुं, ते रीते जीवनुं जीववुं ए वास्तविक जीवन छे. शरीरथी ने रागथी जीववुं ए जीवन नथी, ए तो मरण बराबर ज छे.
हवे लोकोने आवी वात समजाय नहि, ने पोताना मानेला (मिथ्या) आचरणनो आग्रह छूटे नहि एटले विरोध करे, पण कोनो विरोध? ए तो पोतानो ज विरोध छे बापु! परनो विरोध कोण करी शके छे? कोई ज नहि. अमे तो ‘मंदिर बनावो ने महोत्सव करावो’ इत्यादि कोई दिवस कोईने कहेता नथी. अमे तो सत्शास्त्रना अभ्यासथी सत्य समजवानो ने अंतरमां सम्यक् पुरुषार्थ करी सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो उपदेश करीए छीए. अत्यारे तो सत्शास्त्रना अभ्यास वडे सत्य समजवानो काळ छे.
अरेरे! अंदर पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु छे ते द्रष्टिमां न आव्यो, तेनुं तद्रूप भवनमय परिणमन न कर्युं तो जीवनमां शुं कर्युं? कांई ज ना कर्युं, जीवतर एळे गयुं. भाई! आ बहारनी धूळ-लाख-क्रोडनी संपत्ति मळी जाय तो एमां शुं छे? ए तो धूळनी धूळ छे. मुंबईमां अमे उतर्या हता ए मकान ७० लाखनी किंमतनुं हतुं. पण एमां शुं आव्युं? आ मनुष्य देह छूटया पछी जीव चोरासीना अवतारमां कयांय रझळतो थई जशे. अमे तो वारंवार कहीए छीए के जेम वंटोळिये चढेलुं तणखलुं कयां जई पडशे ते निश्चित नथी तेम मिथ्यात्वना वंटोळिये चढेलो जीव चोरासीना अवतारमां कयांय कागडे-कुतरे-कंथवे... जई पडशे, -कांई निश्चित नथी. अरे भगवान! जरा अंदर तो नजर कर; एकलुं चैतन्यनुं दळ चैतन्य-चमत्कार प्रभु तुं आत्मा छो, अने तद्रूप भवन-परिणमन ए तारुं कार्य छे.
अहो! दिगंबर संतोनी आ रामबाण वाणी छे. शुं थाय? जीवने आ वाणी मळी नथी, ने कदाचित् मळी तो प्रेमथी जिज्ञासा करी सांभळी नथी. “झीणी वात छे, सूक्ष्म वात छे, आमां आपणुं काम नहि”-आम बहानां काढीने तेणे समजवानुं छोडी दीधुं छे. अहाहा...! पण भगवान आत्मा ज्ञानादि अनंत स्वभावनो दरियो छे. समुद्रना कांठे समुद्रना पाणीनी जेम भरती आवी तेम भगवान आत्मामां द्रष्टि करतां पर्यायमां तद्रूप भवनरूप ज्ञान ने आनंदनी भरती आवे छे, ने आनुं नाम धर्म छे.
अहा! भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावमय छे, ते एक चैतन्यरूपे परिणमे ते तेनुं तद्रूप भवन छे. अरे डाह्या! तारुं आवुं परिणमन थाय त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. १९६४नी वात छे. पालेजमां अमारी दुकान हती. डाह्याभाई धोळशानी भरूचमां नाटक कंपनी आवेली. मीरांबाईनुं नाटक हतुं. ते नाटक कंपनीना मालीकनुं नाम डाह्याभाई हतुं. ते मरती वखते एम बोलेला-डाह्या! शांतिपूर्वक तारो देह छूटे त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. तेम अहीं सर्वज्ञ परमात्मा कहे छे-निज चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्यनो आश्रय करी अंतरमां निर्विकल्प आनंदनी अनुभव दशा प्रगट करे त्यारे तारुं डहापण कहेवाय. बाकी राग मंद करीने लाखोनां दान आपे तोय शुं? एथी पुण्य बंधाय, संसार मळे,