Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१२६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२ ज्ञायकभावनी एक्ताबुद्धि ते संसार छे, मिथ्यात्व छे. भावेन्द्रियनो विषय जे आखी दुनिया स्त्री, कुटुंब, देव, शास्त्र, गुरु-ते बधाय इन्द्रियना विषयो होवाथी इन्द्रिय कहेवामां आवे छे. ते पण परज्ञेय छे. एनाथी मने लाभ थाय एम मानवुं ते मिथ्या भ्रान्ति छे.

शरीर परिणामने प्राप्त जड इन्द्रियोथी भिन्न भगवान आत्मा निर्मळ भेद- अभ्यासनी प्रवीणताथी प्राप्त थाय छे, बीजी कोई रीते प्राप्त थतो नथी. खूब पैसा खर्ची मंदिरो बंधाववाथी, भगवानना दर्शनथी के भगवाननी वाणीथी भगवान आत्मा प्राप्त थाय एम नथी. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भावथी पण भगवान आत्मा ग्राह्य नथी. ज्ञाननी पर्यायने ज्ञायकमां वाळतां निर्मळ भेद-अभ्यासनी प्रवीणताथी अंतरंगमां प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्य-स्वभावना अवलंबनना बळ वडे जड इंद्रियोने पोताथी सर्वथा जुदी कराय छे, जीताय छे.

मिथ्याद्रष्टिने नव पूर्वनी जे लब्धि प्रगट थाय छे ते अने सात द्वीप तथा समुद्रने जाणे तेवुं जे विभंगज्ञान होय छे ते इंद्रियज्ञान छे, भावेन्द्रिय छे. ते नव पूर्वनुं ज्ञान के विभंगज्ञान स्वभावने प्राप्त करवामां कांई काम आवतुं नथी. भावेन्द्रियने जीतवी होय तो प्रतीतिमां आवता अखंड एक चैतन्यशक्तिपणा वडे तेने सर्वथा जुदी जाण. ज्ञानमां ते परज्ञेय छे पण स्वज्ञेय नथी एम जाण.

पर्यायने अंतर्मुख वाळतां ते सामान्य एक अखंड स्वभावमां ज एकत्व पामे छे. आ अखंडमां एकत्व थाउं एवुं पण रहेतुं नथी. पर्याय जे बहारनी तरफ जती हती तेने ज्यां अंतर्मुख करी त्यां ते (पर्याय) स्वयं स्वतंत्र र्क्ता थईने अखंडमां ज एकत्व पामे छे. पर्यायने रागादि पर तरफ वाळतां मिथ्यात्व प्रगट थाय छे अने अंतर्मुख वाळतां पर्यायनो विषय अखंड ज्ञायक थई जाय छे (करवो पडतो नथी). अहाहा! ते वाळवावाळो कोण? दिशा फेरववावाळो कोण? पोते. परनी दिशाना लक्ष तरफ दशा छे ए दशा स्वलक्ष प्रति वाळतां शुद्धता वा धर्म प्रगट थाय छे. अरे! जे परज्ञेय छे एने स्वज्ञेय मानी आत्मा मिथ्यात्वथी जीताई गयो छे (हणाई गयो छे). हवे ते परज्ञेयथी भिन्न पडी, स्वज्ञेय जे एक अखंड चैतन्यस्वभाव तेनी द्रष्टि अने प्रतीति ज्यां करी त्यां भावेन्द्रिय पोताथी सर्वथा भिन्न जणाय छे. तेने भावेन्द्रिय जीती एम कहेवाय छे. तेने सम्यग्दर्शन एटले साचुं दर्शन कहेवाय छे.

अहाहा! शुं अद्भुत टीका छे! भगवान आत्माने हथेळीमां बतावे छे. आखा लोकनुं राज आपे तोपण जेनी एक पण निर्मळ पर्याय प्रगट थाय एवी नथी, एवी अनंती पर्याय जेना एक एक गुणमां पडी छे एवो मोटो आत्मा भगवान छे. जो परथी भिन्न पडी तेनी द्रष्टि करे तो पुरुषार्थथी ते पर्याय अवश्य प्रगट थाय. अहो! ते पुरुषार्थ पण अलौकिक छे.

हवे कहे छेः-ग्राह्य एटले ज्ञेय-जणावा लायक अने ग्राहक एटले ज्ञायक-जाणनार.