गाथा ३१ ] [ १२७ द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय, अने तेना विषयो ए त्रणे जणावा लायक छे अने ज्ञायक आत्मा पोते जाणनार छे. ए त्रणेय परज्ञेय तरीके अने भगवान आत्मा स्वज्ञेय तरीके जाणवा लायक छे. चाहे तो भगवान त्रणलोकना नाथ हो, तेमनी वाणी हो के तेमनुं समोसरण- ते बधुंय अनिन्द्रिय आत्मानी अपेक्षाए इंद्रिय छे, परज्ञेय तरीके जणावा लायक छे. अने आत्मा ग्राहक-जाणनार छे. आम होवा छतां ग्राह्य-ग्राहकलक्षणवाळा संबंधनी निकटताने लीधे वाणीथी ज्ञान थाय छे एम अज्ञानी (भ्रमथी) माने छे. ज्ञेयाकाररूपे जे ज्ञाननी पर्याय थाय छे ते ज्ञाननुं परिणमन छे, ज्ञेयनुं नहि, ज्ञेयना कारणे पण नहि, छतां ज्ञेय-ज्ञायकना संबंधीनी अति निकटता छे तेथी ज्ञेयथी ज्ञान आव्युं, ज्ञेयना संबंधथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानी (भ्रमथी) माने छे.
पहेलां ज्ञान ओछुं हतुं, अने शास्त्र सांभळतां नवुं (वधारे) ज्ञान थयुं. तेथी सांभळवाथी ज्ञान थयुं एम अज्ञानीने लागे छे. जेवुं शास्त्र होय तेवुं ज्ञान थाय त्यारे अज्ञानी एम माने छे के शास्त्रथी ज्ञान थयुं. ज्ञेय-ज्ञायकनो अति निकट संबंध होवाथी परस्पर ज्ञेय ज्ञायकरूप अने ज्ञायक ज्ञेयरूप एम बन्ने एकरूप होय एवो तेने भ्रम थाय छे. खरेखर एम नथी, छतां आवी मान्यता ते अज्ञान छे. जेवी वाणी होय तेवा प्रकारनुं जे ज्ञान थाय छे ते पोताना कारणे छे, वाणीना कारणे नहि. परसत्तावलंबी ज्ञान पण परथी थयुं छे एम मानवुं ते अज्ञान छे. ज्ञेय-ज्ञायकसंबंधनी निकटताने लीधे अज्ञानीने ज्ञान अने ज्ञेय परस्पर एक जेवा थई गयेला देखाय छे, परंतु एक थया नथी.
प्रश्नः– वाणी सांभळी माटे ज्ञान थयुं, पहेलां तो ते न हतुं? उत्तरः– भाई! ते काळे ते (ज्ञाननी) पर्यायनी ते प्रकारना ज्ञेयने जाणवानी योग्यता हती. तेथी ज्ञान पोताथी थयुं छे, वाणीना कारणे नहि. प्रवचनसारमां आवे छे के वीतरागनी वाणी पुद्गल छे, तेनाथी ज्ञान थाय नहि. ज्ञानसूर्य प्रभु पोते जाणनार छे. ते स्वने जाणतां परने स्वतः जाणे छे. परथी तो ते जाणे नहि, पण पर छे माटे परने जाणे छे एम पण नथी.
वाणी, कुटुंब आदि पदार्थो तो ठीक, पण साक्षात् तीर्थंकर भगवान पण ग्राह्य एटले परज्ञेय छे; अने आत्मा पोताथी जाणनार छे. अज्ञानीने ते इन्द्रियना विषयभूत पदार्थो परज्ञेय होवा छतां एकमेक जेवा थई गयेला देखाय छे. तेमने जुदा केम पाडवा ते हवे कहे छे.
ज्ञायकनो तो जाणवानो स्वतः स्वभाव छे. भगवान के वाणीने लईने ते स्वभाव-शक्ति छे एम नथी. जेने वाणी के रागनो पण संग नथी तेवो पोतानो चैतन्यस्वभाव छे. तेवा चैतन्यस्वभावनुं स्वयमेव अनुभवमां आवतुं जे असंगपणुं तेना वडे पर विषयो-परज्ञेयो सर्वथा जुदा कराय छे. जुओ, द्रव्येन्द्रियो सामे अंतरमां प्रगट अति-सूक्ष्म चैतन्यस्वभाव लीधो, भावेन्द्रिय सामे एक अखंड चैतन्यशक्ति लीधी अने अहीं