थईने जेने निधान मळे छे एवा अंधनी माफक.”-४२.
“आत्मद्रव्य ज्ञाननये विवेकनी प्रधानताथी सिद्धि सधाय एवुं छे, चणानी मुठ्ठी दईने चिंतामणि खरीदनार एवो जे घरना खूणामां रहेलो वेपारी तेनी माफक.”-४३.
जुओ, क्रियानये अनुष्ठाननी प्रधानताथी मोक्ष थाय एम कह्युं छे त्यां कयुं अनुष्ठान? रागना अभावरूप अनुष्ठाननी आमां वात छे. अधिकारमां त्यां प्रथम ज वात करी छे के-
“प्रथम तो, आत्मा खरेखर चैतन्य सामान्य वडे व्याप्त अनंत धर्मोनुं अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य छे, कारण के अनंत धर्मोमां व्यापनारा जे अनंत नयो तेमां व्यापनारुं जे एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण ते प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे (ते आत्मद्रव्य) प्रमेय थाय छे (-जणाय छे).”
जुओ, श्रुतज्ञानप्रमाणमां एक साथे अनंत धर्मो देखाय छे माटे क्रियानयना विषयरूप धर्म ने ज्ञाननयना विषयरूप धर्म भिन्न भिन्न काळे छे एम नथी. आ तो अपेक्षित धर्म छे. रागना अभावरूप अनुष्ठानथी क्रियानये मोक्षनी सिद्धि छे एम त्यां कह्युं छे; पण ते ज काळे ज्ञाननये विवेकनी प्रधानताथी मोक्ष थाय एवो धर्म साथे ज छे. श्रुतज्ञान प्रमाण एकसाथे बधा ज धर्मोने देखे छे. पहेलां ज्ञाननय अने पछी क्रियानय एवुं कांई छे नहि. क्रियानयथी मोक्ष कह्यो त्यां रागना अभावरूप धर्मनी अपेक्षा लेवी. ‘ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः’ एम कह्युं छे त्यां पण वीतरागी क्रियाथी मोक्ष थवानी वात छे.
नयोना विषयभूत धर्मो द्रव्यमां एकीसाथे रहेला छे. श्रुतज्ञानने प्रमाण कह्युं छे, ते श्रुतज्ञान प्रमाण एक समयमां द्रव्यमां एक साथे रहेला सर्वधर्मोने जाणे छे. माटे कोईने क्रियानयथी मोक्ष थाय ने कोईने ज्ञाननयथी मोक्ष थाय एम छे नहि; वस्तु ज एवी नथी. तेथी ज अहीं ‘श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण ते प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे (ते आत्मद्रव्य) प्रमेय थाय छे’-एम शब्द लीधा छे.
भाई! एक समयनी योग्यताने ज्ञान जाणे छे. जे समये मुक्ति थवानी होय ते ज समये ते थाय छे. काळनये मुक्ति अने अकाळनये मुक्ति-एम पण नयना वर्णनमां आवे छे. त्यां मुक्ति तो तेना स्वकाळे थाय छे (आगळ-पाछळ नहि), पण काळनयमां काळनी अपेक्षाए वात छे, ने अकाळनयमां काळ सिवायनां बीजां निमित्तोनी (समवाय कारणोनी) अपेक्षाथी वात छे. तेथी कोईने काळनये मुक्ति थाय, ने कोईने अकाळनये मुक्ति थाय एम वस्तु नथी. अरे, अत्यारे तो शास्त्रना अर्थ करवामां घणी गरबड चाले छे. भाई! लोको तारी मानेली (मिथ्या) लौकिक वात मानी लेशे, पण तने खूब नुकसान थशे.
निश्चयनयना विषयरूप एक धर्म अने व्यवहारनयना विषयरूप बीजो धर्म-ए वात पण त्यां छे. आ बधा अपेक्षित धर्मो एकसाथे गणवामां आव्या छे. त्यां कोईने निश्चयनये मुक्ति ने कोईने व्यवहारनयथी मुक्ति-एम वात छे नहि. शास्त्रमां कई अपेक्षाथी कह्युं छे ते समजे नहि, ने मति-कल्पनाथी अर्थ करे तो महा विपरीतता थाय, माटे अपेक्षा समजीने अर्थ करवा जोईए.
एकत्वशक्तिना वर्णनमां एकद्रव्यमयता कही हती, अहीं अनेकत्वशक्तिना कथनमां एक द्रव्यथी व्याप्य जे अनेक पर्यायो तेपणामय अनेकत्वशक्ति कही छे. एक आत्मद्रव्य पोते ज अनेक पर्यायोरूप थाय छे एवी एनी अनेकत्व शक्ति छे. एकत्व अने अनेकत्व-बन्ने स्वभावरूप आत्मा पोते ज छे, तेथी आत्मसन्मुखताथी ज तेनी यथार्थ प्रतीति थाय छे; रागथी ने पर-निमित्तथी नहि, केमके रागनो ने परनो शक्तिओमां अभाव ज छे. आवी वात छे.
आ प्रमाणे अहीं अनेकत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘विद्यमान-अवस्थावाळापणारूप भावशक्ति. (अमुक अवस्था जेमां विद्यमान होय एवापणारूप भावशक्ति.)’
जुओ, आत्मामां एक भावशक्ति एवी छे के तेनी कोई एक निर्मळ पर्याय वर्तमान-विद्यमान होय ज छे. पर्याय करवी पडे एम नहि, कोई निमित्तथी थाय एमे य नहि; भावशक्तिनुं स्वरूप ज एवुं छे के वर्तमान निर्मळ पर्याय