Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१प६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ समजवा जोईए.

व्यवहारना-शुभभावना फळमां एकाद स्वर्गनो भव आवे, पण तेथी शुं? पूजामां तो आव्युं छे ने के-
एक वार वंदे जो कोई, तारे नरक पशु गति नहि कोई.

एकाद भव स्वर्गनो मळी जाय, पण पछी त्यांथी नीकळीने पाछो पशुगति के नरकगतिमां चाल्यो जाय. वर्तमानमां बहु शुभभाव कर्या होय तो जीव स्वर्गमां जाय, तिर्यंच मरीने आठमा स्वर्ग सुधी जाय छे. त्यांनु आयुष्य पूरुं करीने पाछा तिर्यंचमां पण जवा संभवित छे.

प्रश्नः– सम्मेदशिखरनी जात्रा करे तो तेना भवनो नाश थाय ए तो खरुं ने? उत्तरः– ना, एम नथी. सम्मेदशिखरनी गमे तेटली जात्रा करे तो य ए शुभभाव छे, अने शुभभावथी बंध थाय छे, मुक्ति नहि, भवनाश नहि. ए तो समकिती जीवने जात्रा आदिना भाव होय छे तो तेना एवा शुभभावने आरोपथी उपचार करीने भवनाशक कह्यो होय छे, पण वास्तवमां जात्रानो शुभभाव बंधरूप ज छे.

प्रश्नः– तो लोकोमां कहेवाय छे ने के शत्रुंजय अने सम्मेदशिखरनी जात्रा करो तो कल्याण थाय छे? उत्तरः– धूळे य कल्याण न थाय सांभळने. जात्राना परिणाम शुभराग छे ने एनाथी पुण्यबंध थाय, धर्म नहि, कल्याण नहि. तेनो उपचारथी महिमा करवामां आव्यो होय तो तेने उपचारमात्र ज समजवो जोईए. वास्तवमां तारा कल्याणनुं कारण तो भावशक्ति छे. भावशक्तिनी वर्तमान विद्यमान निर्मळ अवस्था ते तारा कल्याणनुं कारण छे. आ भावशक्ति द्रव्य-गुणमां-अनंतमां व्यापक छे, जेथी अनंत गुण सहित द्रव्यनी वर्तमान अवस्था निर्मळ विद्यमान होय ज छे, ने ते मुक्तिनुं कारण छे. आवी वात छे.

त्रिकाळी भावशक्ति छे ते पारिणामिक भावे छे. तेनुं परिणमन थाय छे ते उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिक एवा त्रण भावरूप होय छे. उदयभाव ते शक्तिनुं कार्य नथी. अहा! निर्मळ पर्यायनी वर्तमान हयाती होय एवी भावशक्ति जीवमां त्रिकाळ छे. ‘अमुक अवस्था’ एटले अहीं निश्चित निर्मळ पर्यायनी वात छे. द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक जेने भावशक्तिनी प्रतीति थई छे तेने भावशक्तिना कार्यरूप नियमथी निश्चित निर्मळ अवस्था विद्यमान होय छे. ‘अमुक अवस्था’ एटले क्रमबद्ध जे निर्मळ अवस्था थवानी होय ते अवस्था वर्तमान-वर्तमान विद्यमान होय छे एम वात छे; अमुक अवस्था एटले गमे ते अवस्था एम वात नथी, पण अमुक निर्मळ निश्चित अवस्थानी वात छे.

अहा! आ भावशक्तिना वर्णनमां घणुं रहस्य भर्युं छे. भावशक्ति परिणमतां-

नियमथी वर्तमान निर्मळ अवस्था विद्यमान होय छे; तेथी

द्रव्यनी पर्यायनुं (निर्मळ पर्यायनुं) व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प कारण नथी.

द्रव्यनी निर्मळ पर्यायनुं देव-गुरु आदि पर निमित्त कारण नथी.

द्रव्यनी पर्याय करवी पडे छे एम नथी.

द्रव्यनी पर्याय स्वकाळे प्रगट थाय ज छे.

द्रव्यमां प्रगट थती पर्याय नियत क्रमथी क्रमबद्ध प्रगट थाय छे. इत्यादि अनेक रहस्यो आ भावशक्तिना वर्णनमां भर्यां छे.

अरे, लोको तो पांच-पचीस लाख खर्ची मंदिर बनावे ने जिनबिंब पधरावे एटले कल्याण थई जशे एम माने छे, पण एवुं वस्तुस्वरूप नथी. मंदिर बनाववाना शुभभावथी पुण्य बंधाय, पण धर्म न थाय. अमे तो संप्रदायमां हता त्यारे य आ वात बहु जोर दईने कहेता. अरे भाई! शुद्ध आत्मद्रव्यना लक्षे निर्मळ अवस्थायुक्त शुद्ध रत्नत्रयनां परिणाम थाय ते मोक्षनुं कारण छे. अहा! भावशक्तिनुं भवन... निर्मळ विद्यमान पर्याययुक्त थवुं ते तेनुं कार्य छे. आ निर्मळ अवस्थानुं व्यवहाररत्नत्रय कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रय धर्मीने हो, पण ए तेनी धर्मपरिणतिनुं-निश्चय रत्नत्रयनुं कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रय निर्मळ अवस्थानुं कारणे य नथी, कार्य पण नथी.

पंचसंग्रहमां कह्युं छे के- अग्निना तापथी जो लाभ थतो होय तो पतंगियां अग्निमां पडे छे तेने लाभ थवो जोईए.