१६६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ मुनिनी वात छे. चारित्रवंत मुनि छे. तेमने त्रण कषायनो अभाव छे. तेमने छठ्ठा गुणस्थानमां बुद्धिपूर्वकनो अने अबुद्धिपूर्वकनो-एम बन्ने प्रकारनो राग होय छे.
अबुद्धिपूर्वकनो राग जीवनो छे एम असद्भूत अनुपचार नयथी कहेवामां आवे छे, ने ख्यालमां आवे छे ते बुद्धिपूर्वकनो राग ते असद्भूत उपचरित नयनो विषय छे. राग पोताना स्वरूपभूत नथी माटे ते असद्भूत छे, ने ख्यालमां आवे छे ते रागने जीवनो कहेवो ते उपचार छे. तेवी रीते ख्यालमां न आवे तेवो सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वकनो राग अनुपचरित असद्भूत नयनो विषय छे. बुद्धिपूर्वकनो ने अबुद्धिपूर्वकनो राग-बन्ने छठ्ठा गुणस्थान पर्यंत होय छे, सातमा गुणस्थानथी उपर एकलो अबुद्धिपूर्वकनो राग होय छे.
पंडितजीए पोतानी भूल स्वीकारी सुधारी लीधेलुं. तेओ ते वखते बोल्या, ‘अमारा बधा पंडितोनुं भणतर निमित्ताधीन द्रष्टिवाळुं ज थयुं छे, निमित्तथी कार्य थाय एवुं ज अमे बधा भण्या छीए. आप कहो छो एवी समज अमारी पासे नथी.’
चोथा गुणस्थानमां आत्मज्ञान प्रगट थवा छतां तेने किंचित् कषायभाव होय छे. कषायमां राग-द्वेष बन्ने आवी गया. माया-लोभ ते राग, ने क्रोध-मान ते द्वेष. आमांथी कोईपण अंश ख्यालमां आवे ते बुद्धिपूर्वक छे, ने जे ख्यालमां न आवे ते अबुद्धिपूर्वक राग छे. ए बन्नेनो आत्मामां अभाव छे माटे तेने असद्भूत कहेवामां आवे छे. क्रोध छे ने तेनो अभाव थशे ए वात अहीं नथी. शक्तिना वर्णनमां क्रोधादि छे नहि, शक्ति तो निर्मळ स्वभावरूप छे, ने तेनी व्यक्ति-परिणमन निर्मळ ज छे. निर्मळ क्रमवर्ती पर्याय ने अक्रमवर्ती गुणो-ए बेनो समुदाय तेने अहीं आत्मा कहेवामां आव्यो छे; विकारनी अहीं वात ज नथी.
अरे! अनंतकाळमां एणे कदी यथार्थ निर्णय अने स्वानुभव कर्यो नहि! स्वानुभव कर्या विना तारां जन्म- मरण नहि मटे भाई! भक्ति, पूजा, व्रत ने तप लाख करे तो य आत्मज्ञान विना ए बधा राग छे, विकार छे, दुःख छे, क्लेश छे. पंडित दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-
भाई, पांच-दस करोडनी मूडी होय, ने पांच-पचीस लाख खर्ची नाखे तो धर्म थई जाय एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी. शुं करीए? वस्तु ज एवी छे. अमे तो एक द्रष्टांत आपीए छीएः एक करोडपति गृहस्थ, तेमनी छेल्ली स्थिति वखते भाव थया के आ बधी पूंजी छोडीने हमणां चाल्या जवानुं छे, तो लाव दानमां कांईक आपुं. हवे लकवाने लईने पूरुं बोलाय नहि. तूटक तूटक बोलवानी चेष्टा करे के-शु.. भ खा... ते... दस... ला... ख. छोकरो समजी गयो के बापुजी दश लाख दानमां आपी देवानुं कहे छे. एटले तरत ते एना बापुजीने कहे-“बापुजी अत्यारे पैसाने याद न कराय, भगवाननुं स्मरण करो.” जुओ, आ संसार! नियमसारमां एक श्लोक आवे छे के-आ बैरां- छोकरां ने सगां-वहालां ए तो पोतानी आजीविका माटे धुतारानी टोळी तने मळी छे. तारुं बधुं ज लूंटी लेशे. तारे दान करवुं हशे तो वच्चे विघ्न नाखशे. परद्रव्य मारुं छे, तेने हुं साचवी राखुं-एम माननारने शास्त्रमां मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे. अने दानथी धर्म थाय एम माननार पण मिथ्या पंथे ज छे. भाई! तारी चैतन्य वस्तुनो स्वानुभवमां निर्णय कर्या विना कयांय धर्म थाय एम नथी.
भगवान आत्मा ज्ञानमां-स्वसंवेदनज्ञानमां जाणवामां आवे छे; तेनी जेवो जाण्यो तेवी प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे. जे स्वसंवेदनमां जाण्यो तेनी प्रतीति करवानी छे. समयसारनी गाथा ३८, ने प्रवचनसारनी गाथा ९२मां आचार्यदेव कहे छे के-अमने आत्मज्ञानथी मिथ्यात्वनो नाश थयो छे; हवे फरीने मोह उत्पन्न नहि थाय. समकित थाय, ने पछी पडी जाय एवी अहीं वात ज नथी. जेने आत्मज्ञान प्रगट थयुं छे तेने वर्तमान अभाव छे तेनो भाव थशे. पहेलां भाव-अभाव कह्यो तो तेमां समकित प्रगट थयुं तेनो अभाव थशे एम न लेवुं. अहीं तो एम अर्थ छे के-वर्तमान निर्मळ पर्याय छे ते ‘भाव’ नो अभाव थईने बीजी निर्मळ पर्यायनो उदय-भाव थशे. वर्तमान अल्प निर्मळ पर्याय छे तो तेनो अभाव थईने, अभाव-भावशक्तिना कारणे विशेष निर्मळ अपूर्व अपूर्व पर्याय भावरूप थशे, उदयरूप थशे. पडी जवानी अहीं कोई वात ज नथी. अहा! जेने द्रव्यद्रष्टिमां पूर्ण चैतन्यनुं दळ एवुं द्रव्य आव्युं तेने द्रव्यनो अभाव थाय तो समकितनो अभाव थाय; पण द्रव्य अने द्रव्यनी शक्तिनो कदी य अभाव न थाय. अहा! तेनो-शुद्ध चैतन्य त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यनो जेने स्वानुभव थईने प्रतीति थई, तेने पर्यायनो व्यय-अभाव थशे, पण ते