Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 37 BhavBhavShakti.

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4086 of 4199

 

३७-भावभावशक्तिः १६७

विशेष निर्मळ पर्यायना भाव-उत्पादपूर्वक थशे; वर्तमान निर्मळ पर्यायनो व्यय थईने तेने अपूर्व अपूर्व निर्मळ पर्यायनो भाव-उत्पाद थशे. आवी वात!

आस्रव अधिकारमां मूळ तो शुद्धनयने नय कह्यो छे. व्यवहार नयने नय गण्यो ज नथी. त्यां कह्युं छे-जेओ शुद्ध नयथी च्युत थईने फरीथी रागादिना संबंधने पामे छे तेओ कर्म बांधे छे. पण अहीं तो छोडवानी वात ज नथी. अहीं तो अप्रतिहत भावनी वात छे. अत्यारे भले क्षयोपशम समकित होय, पण पछी ते क्षायिक थवानुं छे. अत्यारे भले क्षयोपशम ज्ञान होय, पण पछी वधीने ते केवळज्ञान थवानुं छे; साधक दशा मटीने सिद्धदशा थवानी छे; जे भाव वर्तमानमां नथी, अभावरूप छे, ते अभावनो भाव थई जशे. अहो! थोडा शब्दे आ तो गजबनी वात करी छे. शुं थाय? लोको स्वाध्याय करता नथी, आगमनो शुं अभिप्राय छे ते पोतानी द्रष्टिमां लेता नथी!

परमात्म प्रकाशमां आवे छे के-दिव्य ध्वनिथी कांई ज्ञान थतुं नथी, ने मुनिनां कहेलां साचां शास्त्रोथी पण कांई ज्ञान थतुं नथी. पर्यायमां जे अल्प ज्ञान छे ते अभाव थईने, वर्तमान जे अभाव छे ते विशेष ज्ञाननो भाव थाय छे एवुं आत्मानी अभाव-भावशक्तिनुं सामर्थ्य छे.

सर्व गुणांश ते समकित. चोथा गुणस्थाने द्रव्यमां जे अनंत गुण छे तेनो समकितनी साथे ज अंश व्यक्त थाय छे. ते आ अभाव-भावशक्तिनो महिमा छे. जेम एक गुणमां तेम बधामां लेवुं के वर्तमान पर्यायमां जे अल्पता छे ते छूटीने विशेषता थशे; साधकभाव छूटीने पूरण सिद्धदशा प्रगटशे. खूब गंभीर वात छे. अहो! यथार्थ तत्त्वधारा-अमृतधारा जेमनाथी प्रवर्ते छे ते संतोनी बलिहारी छे. दिगंबर संतो सिवाय आवी धारा कयांय नथी.

आ प्रमाणे अहीं अभाव-भावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

*
३७ भावभावशक्ति

‘भवता (वर्तता) पर्यायना भवनरूप (वर्तवारूप, परिणमवारूप) भावभावशक्ति.’ अहाहा...! सम्यग्दर्शन अने धर्म करवो होय तो केम थाय? भाई! व्यवहारना जे विकल्प छे तेनी रुचि छोडी, एक ज्ञायकभाव, शुद्ध चिदानंद, अखंड आनंदकंद प्रभु पोते छे तेनी द्रष्टि करी, रुचि करवी, तेनो अनुभव करवो ते जीवनी प्रथम कार्यसिद्धिरूप सम्यग्दर्शन छे; आनुं नाम धर्म छे. जो के शुभभाव हजु छूटी जतो नथी, शुद्धोपयोग पूर्ण प्रगट थये ते छूटशे, पण शुभनी रुचि अवश्य छूटी जाय छे. भाई! शुभरागनी रुचि तने छे ते महान दोष छे, महान विपरीतता छे. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे.

व्यवहार छे ते मिथ्यात्व छे एम वात नथी; धर्मीने पण बहारमां ते होय छे, पण व्यवहारने धर्म मानवो ते मिथ्यात्व छे. प्रथम शुभभाव एकदम छूटी जाय ने शुद्ध थई जाय एम नहि, पण शुभभावनी रुचि छूटी शुद्धोपयोग प्रगटे छे. स्वभावनो आश्रय लेतां स्वानुभवमां प्रथम शुद्धोपयोग प्रगटे छे, आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. ज्यारे आंतर-स्थिरता थई शुद्धोपयोग पुष्ट थाय त्यारे क्रमशःशुभभाव छूटे छे, ने आ चारित्र छे, धर्म छे. भाई, शुभभावनी रुचि तो पहेलेथी ज छूटवी जोईए.

अशुभभाव तो हेय छे ज, अने शुद्धोपयोग छूटीने शुभभाव थाय ए य कोई चीज नथी. शुभ छूटी अशुभ थाय ते तो अहीं वात ज नथी. अहीं तो शुभभावनी रुचि छोडी शुद्ध चिदानंद स्वरूप प्रभु आत्मा छे तेनी द्रष्टि करवी, तेनी रमणता करवी, तेमां ठरवारूप स्थिरता करवी एवी निर्मळ परिणति ते धर्म छे. माटे प्रथम शुभनी रुचि छोडवानी वात छे, शुभनो आश्रय छोडवानी वात छे. त्रिकाळी शुद्ध निज चैतन्यवस्तु एक आश्रय करवा लायक छे, ते तरफ झूकवाथी शुभरागनो आश्रय छूटी जाय छे.

अहा! ज्ञानी-धर्मी पुरुषने, ज्यां सुधी पूर्ण वीतरागनी दशा थई नथी त्यां सुधी, अंदर शुद्धनी द्रष्टि ने अनुभव होवा छतां, शुभभाव आवे छे, पण तेमां तेने हेयबुद्धि छे, तेनुं तेने स्वामित्व नथी. जुओ, श्रेणिक राजा क्षायिक समकिती