-“मा रुष, मा तुष” कोई प्रति राग न करवो, ने द्वेष न करवो; मतलब के वीतराग भावे रहेवुं. परंतु मुनिराज आ शब्दो भूली गया. त्यां एक बाई अडदनी दाळनां फोतरां जुदां करती हती, बीजी बाईए तेने पूछयुं, -बेन, शुं करो छो? तो पेली बाईए जवाब आप्यो, -माषथी तुष भिन्न करुं छुं. आ सांभळतां मुनिराजने गुरुए कहेली वात याद आवी गई. रागादि छे ते तुष छे, ने मारी ज्ञानशक्ति छे ते मारी मूळ चीज छे. आम नक्की करी निज चिदानंद प्रभुमां अंतर्मग्न स्थिर थया, त्यां केवळज्ञान प्रगट थयुं. आवी भावभासननी बलिहारी छे, एमां कांई बहु शास्त्रो याद रहे एवी जरूर नथी. शास्त्र याद रहे. ए ठीक छे, पण तत्त्वनुं भावभासन मुख्य चीज छे. समजाणुं कांई...?
भाई! चिदानंद चैतन्यमय वस्तु पोतानी चीज छे, पोतानुं घर छे; तेमां जवुं ते थई शके एवुं काम छे. परमाणुने पोताना करवा होय तो ते अशकय छे, अनंतकाळे य न थायः थया नहि, ने थशे नहि. परमाणुने ने रागने पोताना करवानो तारो उद्यम त्रणेकाळ निष्फळ छे बापु! आ शरीरादि ने रागादि भावोने तुं पोताना करवा रातदी एक करे छे, पण त्रणकाळमां ए थवुं संभवित नथी. तेमां तने एकलुं नुकसान छे भाई! स्वभावने पोतानो करीने, ए थई शके एम छे, ने एमां हित छे. आवी वात!
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के-सत् सरळ छे, सत् सर्वत्र छे. हा, पण ज्ञानमां तेनी कबूलात आवे त्यारे ने? ज्ञाननी पर्याय अंतर्मुख थई त्रिकाळी सत् भगवान ज्ञायकनी सन्मुख थाय त्यारे एनी कबूलात-प्रतीति थाय छे. आनुं नाम सत् सरळ छे. बाकी रागनी रुचिमां रमे तेने सत् कयां छे?
अहीं एम कहे छे के-ज्ञाननी पर्याय वर्तमान भावरूप छे ते भावरूप ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान... ज्ञानरूप-रहेशे; ते अज्ञानरूप नहि थाय, ने ते अन्यरूप पण नहि थाय. ज्ञाननी पर्याय अज्ञानरूप थई जाय, वा अन्य श्रद्धानादिरूप थई जाय एम त्रण काळमां बनतुं नथी. आवी आत्मानी भावभावशक्ति छे. अहो! आ तो थोडा शब्दे आचार्य भगवाने बहु ऊंडा भाव भरी दीधा छे. शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टि थई एटले जे ज्ञाननी जात छे ते ज्ञानभावरूप रहेशे, समकित सदा निर्मळ श्रद्धारूप रहेशे ने चारित्रनी पर्याय स्थिरतारूप ज रहेशे. निर्मळ पर्याय एवी ने एवी निर्मळ रहेशे. तेने कोण करशे? तो कहे छे-कोई ज नहि, तेने करवी पडती नथी; ए तो द्रव्यनो एवो ज भावभाव स्वभाव छे. गजब वात छे भाई!
अरे भगवान! तारी चीजनो अंदर पत्तो लागीने स्वानुभव थयो, शुद्ध सम्यक्दर्शन थयुं, पछी ते श्रद्धानी पर्याय बदलाईने अन्यरूप-ज्ञानादिरूप न थई जाय, वा मिथ्यारूप पण न थई जाय. आ तो आवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. समजाय छे कांई...? कई पद्धतिथी कहेवाय छे ते ख्यालमां आवे छे के नहि एम वात छे. अहाहा...! भगवान आत्मा अनंत गुणनो समुद्र छे. ते अनंत गुणमां पोताना भाव पडया छे, ते अन्यरूप न थाय. अहाहा...! गुणनो जे भाव, ते भावनुं भवन थयुं, ते ते भावरूप रहेशे, अन्यरूप नहि थाय. एक गुणमां अनंत गुणनो भाव छे. अनंत गुणमां एक गुणनो भाव छे-ए वात जुदी छे. ए तो एक गुणनुं बीजा अनंत गुणमां रूप छे एनी वात छे, पण एक गुणनुं पोताना जे भावनुं भवन थाय ते बदलाईने अन्य भावरूप न थाय. श्रद्धाना भावपणे परिणमन थयुं ते पलटीने ज्ञानना भावरूप न थाय, वा अश्रद्धाना भावरूप न थाय. श्रद्धा श्रद्धा ज रहेशे, पलटीने तेनुं भवन श्रद्धा ज रहेशे. अस्तित्वनो वर्तमान भाव-पर्याय अस्तित्वरूपछे ते पलटीने निर्मळ अस्तित्वरूप ज रहेशे, कांई नास्तित्वरूप के अन्यरूप न थाय. एम बधा ज गुणोमां लेवुं. ल्यो, आ भावभावशक्ति छे.
अहीं छए शक्तिना वर्णनमां पर्यायनुं स्वरूप शुं एनी वात करी छे. अहा! आमां वस्तुना द्रव्य-गुण- पर्यायनुं स्वरूप स्पष्ट कर्युं छे. वेदांतीओ आत्माने आनंदस्वरूप, अखंड, अभेद, एकरूप, सर्वव्यापक माने छे, पण पर्यायने तेओ मानता नथी. अरे भाई! हुं अखंड, अभेद, एक, व्यापक छुं एवो निर्णय तें शामां कर्यो? एवो निर्णय तो पर्यायमां थाय छे, ने तुं पर्याय मानतो नथी; तेथी तने कोई निर्णय नथी, अर्थात् तारो निर्णय जूठो छे. तुं आत्माने सर्वव्यापक माने छे ए य जूठुं छे. केमके आत्मानुं एवुं सर्वव्यापी स्वरूप नथी. एक भाई कहेता हता के समयसारने वेदान्तना ढाळामां ढाळ्युं छे. अरे प्रभु! वेदान्तवाळा पर्यायने कयां माने छे? समयसारने तो आत्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवा ढाळामां ढाळ्युं छे, तेने वेदान्त साथे कोई ज मेळ नथी.
वेदान्तवाळा कहे छे के आत्मा शुद्ध छे, एक छे, सर्वव्यापक छे. हा, पण एवो निर्णय कोणे कर्यो? ते निर्णय पर्याय करे छे.