१७०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
बीजी वातः आत्मा सर्वथा शुद्ध ज छे, अंदर कयांयभूल नथी तो उपदेश शा माटे आप्यो? माटे भूल छे, ने भूल छे ते पर्याय छे, भूलनो नाश थाय ते य पर्याय छे. द्रव्यनो तो नाश थतो नथी. माटे पर्याय सिद्ध थाय छे. द्रव्य-गुणनो स्वीकार पण पर्यायमां ज थाय छे. द्रव्य-गुण तो त्रिकाळी छे, ने भूल छे ते पर्यायमां छे. भूलनो नाश थयो ते य पर्याय छे. व्यय थईने उत्पाद थाय ते य पर्यायरूप छे. अहीं छ बोलमां पर्यायना उत्पाद-व्यय ए द्रव्यना स्वभावरूप छे एम तेनुं सुंदर ताद्रश वर्णन कर्युं छे.
रागनी उत्पत्ति ज न थाय, वीतरागता थाय ते अहिंसा छे, ते धर्म छे, ते चारित्र छे. परनी दयाना राग ए कांई चारित्र नथी, वास्तवमां ए हिंसा छे. आकरी वात प्रभु! पण आ सत्य वात छे. अरे भाई! साधकने- धर्मीने वर्तमान जे चारित्रभाव प्रगट छे ए तो सिद्ध दशामां य (पूर्ण भावे) कायम रहेशे. चारित्र तो वीतरागतास्वरूप छे भाई! अहाहा...! चोथा गुणस्थाने जे चारित्रदशा थई ते चारित्र... चारित्र.. चारित्रभावे वृद्धिगत थई कायम रहेशे. हवे ते अचारित्र वा रागपणे नहि थाय. अहाहा...! वर्तमान वीतरागता प्रगटी ते भाव (पूर्ण) वीतरागतारूप सिद्धमां पण रहेशे. आ तो बधी अंदरनी वातुं बापु! झीणी पडे तो य जाणवी ज पडशे. इन्द्रियोनुं दमन, बार प्रकारनां व्रत ते संयम ए जुदी वात छे. ए तो व्यवहारथी संयम कह्यो, तेनो तो क्रमे अभाव थई वीतरागता वृद्धिगत थई पूर्ण वीतरागता थशे एम कहे छे. अहा! भगवान आत्मानी पर्यायमां पोताना भावनुं भवन न होय तो पर्याय केम होय? एवी पर्यायनुं स्वरूप ज शुं? चोथागुणस्थाने पण ज्ञाननी, श्रद्धाननी, चारित्रनी, प्रभुतानी पर्याय विद्यमान छे, ने ते ते भावे ते कायम रहेशे. अहो! दिगंबर संतो सिवाय आवी वात कयांय नथी. बीजाने दुःख लागे पण शुं करीए? सत्य आ ज छे.
नग्नपणुं ते दिगंबर संतपणुं-मुनिपणुं-एम नहि; केम? केमके एमां अतिव्याप्तिनो दोष आवे छे. अहाहा...! सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने अंदर वीतरागी चारित्रनी दशा थाय ते साधकदशा छे. पहेलां स्वरूपस्थिरताना भाव हता ते वृद्धिगत थई छठ्ठा गुणस्थाने विशेष चारित्रदशा थई ते मुनिदशा छे. त्यां जे जात प्रगटी ते सिद्धमां य कायम रहेशे. जेम चांदीनी पर्याय चांदीरूप रहे, लोखंडरूप न थाय तेम चारित्रभाव प्रगट थयो ते चारित्र... चारित्ररूप ज रहेशे, अचारित्ररूप नहि थाय. चांदीना परमाणु तो कदाच पलटीने लोखंडपणे थई जाय, पण आमां न थाय; चारित्र पलटीने अचारित्र न थाय. आवी वात! चोथा गुणस्थाने अल्प स्वसंवेदन छे, ते पलटीने उग्र स्वसंवेदन थशे, पूर्ण स्वसंवेदन थशे, पण स्वसंवेदन मटीने अन्यरूप थई जाय एम नहि बने, केम? केम के वस्तु ज एवी भावभाव- स्वभावी छे के भावना भवनरूप भाव, भाव रहे. वस्तु ज एवी छे. अहाहा...! द्रव्यमां जेटला गुण छे एटली एक समयमां पर्याय छे. जे पर्यायनो जे भाव छे ते भाव भविष्यमां पण कायम ज रहेशे, अन्यरूप थाय, वा बीजामां भळी जाय एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. समजाणुं कांई...?
अहा! पर्याय द्रव्यना आश्रये परिणमी तो पर्याय द्रव्यमां तन्मय थई. तन्मय थई एटले शुं? पर्याय, द्रव्यरूप थई जाय, के द्रव्य पर्यायरूप थई जाय एम नहि, पण परसन्मुखता हती ते स्वसन्मुखता थई, परमां एकत्व मान्युं हतुं ते स्वमां एकत्व मानी प्रगट थई-आने तन्मय थई एम कहेवाय छे. पर्याय तो पर्यायरूप रहीने द्रव्यनुं ज्ञान-श्रद्धान करे छे. अहीं कहे छे-ए ज्ञान-श्रद्धानरूप जे भाव प्रगटया ते हवे कायम रहेशे, पलटीने अज्ञान-अश्रद्धानरूप नहि थाय-आवुं द्रव्यनुं भावभावरूप सामर्थ्य छे. जे गुणनो जे भाव छे तेना भवनरूप पर्याय प्रगट थई तो ते भाव हवे एवो ने एवो कायम रहेशे. आ भावभाव छे.
हवे आमां ओला व्यवहारवाळाओने वांधा पडे छे-एम के व्यवहारथी थाय, व्यवहार साधन छे. अरे बापु! तने आत्मामां शुं सामर्थ्य भर्युं छे तेनी खबर नथी. आ वीतरागतास्वरूप वीतरागनो मार्ग छे तेने रागनो मारग ठरावी दे ए केम चाले? रागथी-व्यवहारथी लाभ थशे ए वात वीतरागमार्गमां छे नहि. पहेलां श्रद्धामां आ पाको निर्णय थवो जोईए के मारग वीतरागतामय ज छे, अने एनाथी ज कल्याण छे. वीतरागभाव वधतां वधतां पूर्ण वीतराग थाय छे, वीतरागभाव प्रगट थयो ते कायम रहे छे. तेम अल्पज्ञान-मतिश्रुतज्ञान थयुं ते ज्ञान... ज्ञान... ज्ञानभावे कायम रहीने पूर्णज्ञान-केवळज्ञान थशे-आवुं भगवान आत्मानुं सामर्थ्य छे, बीजाना कारणे कांई ज नथी. आनुं नाम भावभावशक्ति छे. अहा! त्रिकाळ भाव छे तेवो वर्तमान वर्तमान वर्त्या करशे. एम त्रिकाळ ने वर्तमाननी सदाय एक जाति रहेशे-एवुं भावभावशक्तिनुं स्वरूप छे.
अहीं आ प्रमाणे भावभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.