१७२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ धर्मीने ए सर्व परना अभावरूप परिणमन विद्यमान छे ते सदाय अभावरूप रहेशे एवी आत्मानी अभावअभाव शक्ति छे. अहो! आवो चैतन्यनो भरपूर खजानो अंदर पडयो छे, पण एनो एने विश्वास नथी.
शुभराग करे छे एनो विश्वास छे; राग पोताना स्वभावमां छे नहि, छतां रागथी मारुं कल्याण थशे एवो अज्ञानीने विश्वास छे; अहा! पण ए तो आत्मवंचना-धोखाधडी छे भाई! एमां द्रष्टिनी महाविपरीतता छे ते भारे नुकसान करशे.
अहा! ज्यां स्वभावना आश्रये द्रष्टि फरी त्यां सम्यग्दर्शन थयुं, धर्मीने तेमां मिथ्या श्रद्धानरूप परिणमननो अभाव छे; अने हवे एवुं ज मिथ्याश्रद्धानना अभावरूप परिणमन रहेशे. धर्मी जीवने द्रव्यद्रष्टि थईने जे रागना अभावरूप प्रवर्तन थयुं ते हवे कायम रहेशे. हवे व्यवहार-रत्नत्रयथी निश्चयरत्नत्रय थाय ए वातने कयां अवकाश छे? परमात्मा केवळी प्रभु तेनी अहीं चोख्खी ना पाडे छे; केम के समकिती द्रष्टिवंतने रागनुं अप्रवर्तन छे. अरे, एणे पोतानुं घर कदी जोयुं नथी. भजनमां आवे छे ने के-
पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये...
अररर! एणे अनेक नाम धारण कीधां! अहीं कहे छे-ए वस्तुनुं स्वरूप नथी. हुं रागी छुं, क्रोधी छुं, मानी छुं, व्यवहारनो करनारो छुं-आम अज्ञानी माने पण ए वस्तुनुं स्वरूप नथी. निजघरमां आवे तो तेमां रागनो अभाव ज्ञानीने देखाय छे. विकारना अभावरूप थवुं एवो आत्मानो स्वभाव छे, ने ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. द्रव्यद्रष्टि थतां अभाव-अभाव एवो जे स्वभाव ते पर्यायमां व्यापक थाय छे, तेथी तेने विकारना अभावरूप परिणमन कायम रहे छे.
तो शुं ज्ञानीने व्रतादिनो विकल्प-राग छे ज नहि? छे ने; ज्ञानीने दया, दान, व्रतादिनो विकल्प होय छे, छतां तेनी पर्यायमां तेना अभावरूप परिणमन छे. ज्ञानी राग छे तेनो मात्र जाणनार छे. राग छे तेने जाणवानी जे ज्ञाननी दशा तेमां ज्ञानी वर्ते छे, रागमां वर्ततो नथी. आवुं रागना अभावस्वभावे धर्मीनुं परिणमन होय छे. अहो! आचार्यदेवे एकलुं अमृत पीरस्युं छे.
समयसारनी गाथा ९६मां आचार्यदेव कहे छे के-अमृतनो सागर प्रभु आत्मा मृतक कलेवरमां मूर्च्छाई गयो छे. आ शरीर छे ते मडदुं छे भाई! ए जड परमाणुनी दशा छे. तेमां चैतन्यगुणनो अभाव छे माटे ते मृतक कलेवर छे. अरे, मूढ जीव ए मडदा साथे पोतानी सगाई माने छे. मूढ अज्ञानी जीवे अनादिथी जड देह अने राग साथे सगाई करी छे, रागमां ते एकाकार थयो छे. पण भाई, तुं ए नथी. ने ए तारी चीज नथी. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्मनी प्रकृति बंधाय ते तारी चीज नथी, तेना अभावस्वभावरूप भगवान! तुं छो, अने तेवी द्रष्टि थये तेना अभावस्वभावे परिणमन थाय छे, ने ते कायम एवुं रहेशे.
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो.
अज्ञानी आ सांभळी राजी राजी थई जाय छे. तेने मोंमां पाणी वळे छे के-अहो! सोलह कारण भावना! पण भाई, अहीं कहे छे-ते भावनाना अभावस्वभावरूप धर्मीनुं परिणमन छे.
अहा! वीर्यशक्तिमां पण आ अभाव-अभावशक्तिनुं रूप छे. तेथी वीर्य रागना अभावरूप जे निर्मळतानी रचना करे छे ते रागना अभावरूप रचना ज कर्या करशे, तेमां मलिनतानो हंमेश अभाव ज रहेशे; अहा! आत्माना वीर्यथी-बळथी मलिन पर्यायनी रचना थशे ज नहि. अहा! जे पुरुषार्थथी निर्मळ रचना थई ते निर्मळ रचना तेवी ने तेवी रह्या ज करशे. आवी वात!
एक द्रव्यनो बीजा द्रव्यमां त्रिकाळ अभाव छे. बे द्रव्य वच्चे अत्यंत अभाव छे. आ रीते जीवमां पोताथी भिन्न एवा द्रव्य-गुण-पर्यायनो त्रणेकाळ अभाव छे. हवे आम छे त्यां जीव बीजानुं शुं करे? ने बीजो जीवनुं शुं करे? कांई ज न करे. तेवी रीते रागनो पण स्वभावमां अत्यंत अभाव छे. आकरी वात बापु! आ अध्यात्मनो अभाव कह्यो. प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, ने अत्यंताभाव-आ चार अभावमां अध्यात्मनो अभाव आवतो नथी.