पर्यायमां निर्मळ षट्कारकथी परिणमन थाय छे तेमां मलिन परिणामना षट्कारकोनो अभाव छे. पर्यायबुद्धि जीवने पर्यायमां जे विकृत परिणाम थाय छे ते कांई द्रव्य-गुणमांथी आवता नथी, विकाररूपे परिणमे एवी द्रव्यमां कोई शक्ति नथी. पर्यायबुद्धिमां विकारनो कर्ता विकारी पर्याय छे. राग कर्ता, राग कर्म, राग करण, राग संप्रदान, राग अपादान ने राग तेनुं अधिकरण-एम विकारना षट्कारक विकारी पर्यायमां छे; ज्यां द्रव्यद्रष्टि थई त्यां विकारना षट्कारकरूप परिणमननो तेमां अभाव छे. ज्यां सुधी मिथ्या द्रष्टिनी द्रष्टि पर्याय उपर छे त्यां सुधी पर्यायमां विकार छे.
पर्यायमां जे विकृत अवस्था छे ते कोई शक्तिनुं कार्य नथी. पर्यायमां तेने उठावगीरे (अज्ञानी मूढ जीवे) अद्धरथी उठावी छे; वस्तुमां ते नथी. विकार छे ए तो ज्ञान कराव्युं छे, बाकी तारी चीज एवी छे के विकाररूपे न थाय-परिणमे-धर्मीने विकारना अभावरूप निर्मळ परिणमन थयुं ते एवुं ने एवुं विकारना अभावरूप निर्मळ ज रहेशे-एवो भगवान आत्मानो स्वभाव छे.
भाई! तारी शक्तिमां एक अभाव-अभाव गुण छे; जेथी श्रद्धान-ज्ञाननी वर्तमान दशामां विपरीततानो अभाव छे, तो भविष्यमां पण विपरीततानो अभाव कायम रहेशे. ज्ञाननी पर्याय जे निर्मळभावरूप छे ते एवा ने एवा निर्मळभावरूप सदाय रहेशे, तेमां विकारनो अभाव छे तो कायम विकारनो अभाव रहेशे. जेने द्रव्यद्रष्टि अंदर खीली गई तेने पछी पडवानी-खसवानी वात ज नथी. जो द्रव्यनो नाश थाय तो द्रव्यद्रष्टिनो पडे; पण द्रव्य, वस्तु जे एक ज्ञायकस्वभाव छे ते तो अनंतशक्तिनो पिंड प्रभु त्रिकाळ विद्यमान छे. आवा द्रव्यनी प्रतीति थई, ने ज्ञाननी पर्यायमां तेनुं ज्ञान थयुं पछी ए ज्ञान पडी-छूटी जाय एवी द्रव्यमां तो कोई शक्ति नथी अर्थात् द्रव्य- गुणमां एवुं कोई कारण नथी.
जुओ, अनादिथी जीवने २१ गुणमां विपरीत परिणमन थाय छे एम तारवणी काढेली. परंतु स्वभावद्रष्टिवंतने-धर्मी पुरुषने विपरीत परिणमननो तेनी पर्यायमां अभाव छे, ने निर्मळ परिणतिनो सद्भाव छे. आ अस्तिनास्ति थई. आ अनेकान्त छे. भावभावशक्तिना कारणे तेने निर्मळ परिणतिनो भाव-भाव रहेशे, ने अभाव-अभावशक्तिना कारणे तेनी पर्यायमां विपरीततानो-मलिनतानो अभाव रहेशे. भाई, तारी चैतन्यसंपदा तो जो! अंदर जुए तो न्याल थई जाय एवी ए चीज छे बापा! ए बहारमां कयांय मळे एम नथी. पवित्रतानो पिंड प्रभु अंदर छे ते अंतरद्रष्टि करतां प्राप्त थाय छे, बीजी कोई रीते प्राप्त थतो नथी. आवी वात छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे-कर्मथी विकार थाय छे; पण एम छे नहि. जो एम होय तो संसारीने कर्म तो छे, पछी ते निर्विकार केम थशे? विकाररूपे परिणाम थाय ते पोताना (पर्यायना) षट्कारकथी थाय छे छतां पोतानो स्वभाव तो तेनाथी रहित छे. आ वात ३९मी शक्तिमां आवशे.
भाई! आ तो वीतरागी कथा बापु! धर्मी पुरुषने उपदेशनो विकल्प आवे छे, तो पण ते विकल्पना अभावस्वभावरूप धर्मीनुं परिणमन छे. अरे प्रभु! एक वार अंदर तारा द्रव्य उपर द्रष्टि दे. द्रव्यनो स्वीकार थतां रागरूपे परिणमवुं ए छे नहि; केम के अभाव-अभावशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. अहा! हजार वर्ष पहेलांना आ दिगंबर संतनी वाणी तो जुओ! अहाहा...! केवळज्ञाननां कबाट खोली नांख्यां छे. अरे प्रभु! रागमां तुं रमे ए तारी रमतुं नहि; रागथी विरमे, रागरूपे न परिणमे ए तारी रमतुं छे. हवे आवी वात कयां मळे प्रभु! रळवा माटे देश-विदेश रखडे, पण आ कयां मळे? अंतरनी चीज तो अंतरमां छे ने अंतरमां जाय तो ते मळे छे. अहा! आ अलौकिक वर्णन छे; जगतनां भाग्य होय तेटलुं बहार आवे छे.
पण आ विशेष कहोने! कोण कहे? ए तो भाषानुं सामर्थ्य छे. भाषामां स्व-परने कहेवानी ताकात छे, ने आत्मामां स्वपरने जाणवानी ताकात छे. बन्ने पोतपोताना उपादानथी स्वतंत्र परिणमे छे, कोई कोईने करे एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी. समजाय छे कांई...?
अहीं कहे छे-निश्चयथी संसार जे उदयभाव छे तेनो धर्मीनी पर्यायमां अभाव छे. आवां द्रव्य-गुण- पर्यायनी प्रतीति थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आ ज्ञानप्रधान शैलीथी कथन छे. ज्ञेय अने. ज्ञायकनी यथार्थ प्रतीति तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे;-आ ज्ञानप्रधान व्याख्या थई. एक भूतार्थनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे-आ दर्शनप्रधान व्याख्या छे.