Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१७४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११

द्रव्यद्रष्टिवंत धर्मी पुरुष विकारने परज्ञेय तरीके जाणे छे. ज्ञान करनारी ते ज्ञाननी पर्याय वर्तमान विद्यमान छे तेमां विकारनो अभाव छे. आम दरेक गुणमां समजवुं. भगवान! तुं ज्ञानानंद स्वभावी छो. तारामां रागने आकुळताना अभावरूप स्वभाव छे. त्रिकाळ परना अभावस्वभावरूप प्रभु तुं छो. हवे आम छे त्यां परद्रव्यनी पर्यायने जीव करे ए वात ज कयां रहे छे? ने परद्रव्य जीवनी पर्यायने करे ए वात पण कयां रहे छे? अंतराय कर्मना अभावथी वीर्यशक्तिनुं परिणमन थयुं एम वात कयां रहे छे? एम छे ज नहि.

अहाहा...! भगवान आत्मा विकल्परहित (शुद्ध) दिगंबर छे. मिथ्यात्वना अभावरूप परिणमन करे त्यारे जीव द्रष्टिमां दिगंबर थयो कहेवाय. समकिती अने भावलिंगी मुनि दिगंबर छे. अहाहा...! अंदरमां त्रण कषायनो अभाव अने बहारमां वस्त्रनो अभाव तेनुं नाम दिगंबर मुनिदशा छे. जो के परद्रव्यनो स्वभावमां अभाव छे, ने परद्रव्य नुकसान करतुं नथी; पण तेनी ममता छे ते नुकसाननुं कारण छे. वस्त्र प्रत्येनो राग-ममता छे ते नुकसाननुं कारण छे. देहनी रक्षानो राग छे, ममता छे ते नुकशाननुं कारण छे. तेथी ज कपडां राखवानो राग होय त्यां सुधी मुनिदशा होती नथी. मार्ग आ छे भाई. आमां शुं करवुं-शुं न करवुं-ते तो पोताने निर्णय करवानी वात छे. अमारी पासे तो तत्त्वद्रष्टिनी आ वात छे. जेने जेम ठीक पडे तेम करे, पण वस्त्र सहित मुनिपणुं माने-मनावे तेनी नवतत्त्वनी भूल छे, अर्थात् तेनी मिथ्यात्वदशा छे. आवी वात छे.

शुद्ध चैतन्यना आश्रये मुनिदशामां त्रण कषायनो अभाव थाय छे. तेम थतां तेने अस्थिरतानो राग तेनी भूमिकाने योग्य ज होय छे. मुनिदशामां वस्त्र राखवानो राग होई शके नहि; तेथी वस्त्र सहितने आस्रव तत्त्वनी भूल छे. तेने शुद्ध जीवद्रव्यनो आश्रय नथी ते जीव तत्त्वनी भूल छे, ने ए प्रमाणे साते तत्त्वनी भूल छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे (सूत्रपाहुडमां) बहु स्पष्ट कह्युं छे के-वस्त्रनो टुकडो राखी मुनिपणुं माने-मनावे तो निगोदमां जशे. आम केम कह्युं? कारण के एम माननारनी मिथ्यात्व दशा छे, ने मिथ्यात्वनुं फळ क्रमे निगोद ज छे. अहा! छठ्ठा गुणस्थानमां संत-मुनिवरने व्यवहारना अभावरूप निर्मळ परिणमन छे ने ते एवुं ने एवुं निर्मळपणे कायम रहेशे.

अहा! आ अभाव-अभावशक्ति त्रिकाळ छे ते ध्रुव उपादान छे, ने तेनुं वर्तमान वर्तमान परिणमन छे ते क्षणिक उपादान छे. तेमां शक्ति छे ते त्रिकाळ पारिणामिक भावे छे, ने रागरहित तेनां जे निर्मळ परिणाम छे ते उपशम, क्षयोपशम के क्षायिक भावे छे. उदयभाव तेमां आवतो नथी, केमके उदयभावना अभावस्वभावे ज शक्तिनुं परिणमन होय छे.

केटलाक कहे छे के-शत्रुंजयनी जात्रा करीए तो कल्याण थई जाय; आ बधुं समजीने शुं काम छे? अरे भाई! एम नथी बापु! जात्रा करवाना भाव तो राग छे, ने रागना अभावस्वभावे जीवनुं परिणमन थाय ते कल्याणरूप छे; रागने रागनुं परिणमन कल्याणरूप नथी, वास्तवमां अकल्याण छे. आवी आकरी वात! पण आ सत्य वात छे.

उपशमनो तो थोडो काळ छे, बाकी क्षायोपशमिक अने क्षायिकभाव होय छे. क्षयोपशम ने क्षायिक ते परिणति छे. ते अंतरमां जाय त्यारे पारिणामिक भावरूपे थई जाय छे, कारण के वर्तमान जे एक समयनी अवस्था छे तेनो बीजे ज समये व्यय थई अंदर जाय छे. “जल का तरंग जल में डूबता है”-एम पोतानी पर्याय व्यय थई अंदर जाय छे, ने अंदर गई ते पारिणामिकभावे थई जाय छे.

जे जन्मक्षण ते ज (पूर्व) पर्यायनो नाश क्षण छे. अभाव-अभावशक्तिनी जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई ते तेनी जन्मक्षण छे. ते पर्याय पोताना स्वकाळे प्रगट थई छे; ते एनी काळलब्धि छे. ते परिणमन क्रमबद्ध-पोताना स्व-अवसरे थयुं छे.

हा, पण तेमां आपणे शुं करवुं? क्रमवर्ती पर्याय ने शक्तिना भेदनुं लक्ष छोडी, शुद्ध एक चैतन्यमात्र निज त्रिकाळी द्रव्यनुं लक्ष करवुं. एम करतां