शक्तिनुं निर्मळ परिणमन सहज ज प्रगट थाय छे, अने ते तेनो स्वकाळ छे. भाई! क्रमवर्ती पर्याय-अने शक्तिनो भेद ए समकितनो विषय नथी. द्रष्टिनो विषय तो अभेद शुद्ध चैतन्यवस्तु छे. अभेदनी द्रष्टि थतां पर्यायमां शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थाय छे, अने ते निर्मळ परिणति विकाररहित होय छे.
अहा! शक्तिनी जे निर्मळ परिणति प्रगट थई ते अकार्यकारणमय छे. एटले शुं? के ते परिणति रागनुं कार्य नथी, अने रागनुं कारण पण नथी. क्रमवर्ती ज्ञाननी पर्याय थाय ते रागनुं कार्य नथी; रागथी ज्ञान थयुं छे एम नथी. क्रमवर्ती ज्ञाननी पर्याय रागने जाणे ए य व्यवहार छे, खरेखर तो पोते पोताने जाणे छे. राग संबंधी ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणे छे तो रागने जाणे छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे.
अरे भाई! हुं रागनो जाणनार छुं एवा भेदथी शुं साध्य छे? कांई ज नहि. अरे, हुं जाणनारो जाणनार छुं एवा भेद-विकल्पथी य शुं साध्य छे? कांई ज नहि. माटे शक्तिनो पिंड शुद्ध एक अभेद चैतन्यद्रव्य त्रिकाळ छे तेनी द्रष्टि कर, तेम करतां सर्व कार्य सिद्ध थई जाय छे. भेद-द्रष्टि ए मिथ्याद्रष्टि छे, ने अभेदनी द्रष्टि करवी ए ज धर्म छे. ल्यो,
आ प्रमाणे अहीं अभाव-अभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘(कर्ता, कर्म आदि) कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी (-होवामात्रमयी, थवामात्रमयी) भावशक्ति.’
जुओ, पहेलां ३३मी भावशक्ति कही त्यां तो वर्तमान निर्मळ अवस्थानी विद्यमानता होवारूप शक्तिनी वात हती, अहीं वात जुदी छे. अहीं कहे छे-‘कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति.’ अहाहा...! द्रव्यवस्तु जे एक ज्ञायकभाव तेना तरफ जेनी द्रष्टि छे ते धर्मी-सम्यग्द्रष्टि जीवने विकारी कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित परिणमन होय छे. अहाहा...! कारकभेदनी क्रिया वगर ज भववुं अर्थात् ज्ञानभावमय परिणमवुं एवी आत्मानी आ भावशक्ति छे. अहाहा...! धर्मीने ‘आ कर्ता ने आ कर्म’ एवा कारकभेदनी क्रियाथी रहित निर्मळ ज्ञानभावमय भावनुं भवन थया करे छे-आ भावशक्तिनुं कार्य छे.
धर्मी जीवने पर्यायना षट्कारकथी शुभाशुभभाव थता होय छे. आ रीते तेने एक समयनी पर्यायमां रागादि विकल्पनुं परिणमन होय छे. रागनी पर्याय कर्ता, जे पर्याय रागनी थई ते कर्म, ते पर्याय पोते करण नाम साधन, ते विकार पर्याय पोतामां राखी ते संप्रदान, पर्याय पोतामांथी थई ते अपादान, अने पर्यायना आधारे पर्याय थई ते अधिकरण-आम एक समयनी विकृत अवस्थामां षट्कारकरूप परिणमन छे. अहीं कहे छे-षट्कारक अनुसार जे क्रिया-शुभाशुभ विकल्प छे, व्रतादि विकल्प छे, तेनाथी रहितपणे धर्मी, द्रव्यद्रष्टिवंत ज्ञानीनुं परिणमन होय छे.
धर्मी जीवने पर्यायमां षट्कारक अनुसार विकृत अवस्था छे एमां एम सिद्ध कर्युं के पर्यायमां विकृति छे ते एना (पर्यायना) षट्कारकथी छे, जडकर्मथी नथी, तेमज पोताना द्रव्य-गुणथीय नथी. जे शक्ति छे तेनाथी विकृति नथी, केमके षट्कारकरूपे विकृत अवस्था स्वयंसिद्ध छे, अने तेनाथी रहित भवन-परिणमन थाय ते भावशक्तिनुं कार्य छे.
प्रभु, तारी चीज-शुद्ध चैतन्यवस्तु अंदर पूर्ण अखंड छे ने! अहाहा...! ते अखंड ध्रुव उपर द्रष्टि देतां, पर्यायमां, षट्कारकथी जे विकृत अवस्था छे तेनाथी रहितपणे परिणमन थाय छे. अहा! आवो तारी चैतन्यवस्तुनो स्वभाव छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे ज्ञानीने विकल्प होय छे ते पर्यायना कर्ता-कर्म आदि षट्कारकथी थाय छे. अहीं कहे छे-ज्ञानीने एनाथी रहितपणे ज्ञानभावमय परिणमन होय छे-आ भावशक्तिनुं कार्य छे. पोताने जे विकृत दशा छे तेनाथी रहित पोतानी चैतन्यदशा छे एम ज्ञानी जाणे छे.
आमां एम सिद्ध थयुं के पर्यायद्रष्टि-मिथ्याद्रष्टिने पर्यायना षट्कारकथी विकृत दशा होय छे, अने द्रव्यद्रष्टिवंत