Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१७६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ धर्मी पुरुषने पण पर्यायमां षट्कारकथी विकृत दशा होय छे. अहा! परंतु जेने पर्यायद्रष्टि मटी शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि थई छे, एक ज्ञायकभावनी जेने द्रष्टि थई छे तेने विकृत अवस्थाथी रहितपणे परिणमन करवापणे भावशक्ति प्रगट थई छे. आ भाव गुणना कारणे विकारभावथी अभावरूप परिणमन थाय छे. जे विकारनी दशा रहे छे ते परज्ञेयमां जाय छे. आवी आ झीणी वात छे.

प्रभु! तारी प्रभुतामां भाव नामनी एक प्रभुता पडी छे. अहाहा...! प्रभुतामां पामरतारूप षट्कारक- परिणमनथी रहितपणे परिणमवानो एनो स्वभाव छे. जेने पर्यायद्रष्टि छे तेने तो षट्कारकना परिणमनथी पामर विकृत दशा छे, पण शुद्ध द्रव्यनी जेने द्रष्टि थई छे एवा सम्यग्द्रष्टिने, तेनी पर्यायमां जो के किंचित् विकृत दशा छे तोपण, ते समये जे निर्विकल्प अवस्था द्रव्य प्रति झूकी छे ते आ प्रभुतामय भावशक्तिनुं कार्य छे. अहा! धर्म केम थाय एनी आ वात चाले छे.

अहा! चैतन्यरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेना सन्मुखनी जेने द्रष्टि थई छे तेने पर्यायमां विकृति किंचित् होवा छतां तेनाथी रहितपणे परिणमवुं एवो तेनो स्वभाव छे. आ तो एम वात छे के-पर्यायमां व्यवहार रत्नत्रयनो भाव हो, देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प हो, नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा हो, पंचमहाव्रतादिना पालननो विकल्प हो; ते बधी विकृत अवस्था छे, ने ते पर्यायना षट्कारकना परिणमनरूप छे, तथापि आत्मामां तेनाथी रहितपणे परिणमवानो भावगुण छे, जेथी धर्मी पुरुषने विकारना रहितपणे निर्मळ ज्ञानभावमय परिणमन होय छे. अहा! दया, दान, व्रत आदिना विकल्प ते कारको अनुसारनी विकृत क्रिया छे, ने तेनाथी रहितपणे भवनरूप-परिणमनरूप भावशक्ति जीवमां छे. अहो! संतोए थोडा शब्दे रामबाण मार्यां छे.

केटलाक एम माने छे के शत्रुंज्य आदि तीर्थनी यात्रा करीए एटले बस धर्म थई जाय, पण एम छे नहि. केमके तीर्थ-यात्राना परिणाम तो राग-विकल्प छे, ने रागनी क्रियाने अनुसार न थवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. वास्तवमां आत्मा पोते ज शत्रुंज्य तीर्थ छे. आ विपरीत जे राग छे ते आत्मानो घातक शत्रु छे, ने तेनाथी रहितपणे थवानो जेनो स्वभाव छे ते आत्मा पोते शत्रुंज्य तीर्थ छे. अहा! आवा तीर्थस्वरूप निज आत्मानी यात्रा करवी ते धर्म छे. बाकी व्यवहारनी क्रिया बहारमां हो, पण तेनाथी रहित ज्ञानीनुं परिणमन होय छे; ने व्यवहारनी क्रिया तो बहार परज्ञेयपणे रही जाय छे. रागथी-विकारथी रहित भवन-परिणमन ते आत्मानो गुण-स्वभाव छे.

जैन दर्शनमां तो बधे कर्म ज कर्म छे एम केटलाक माने छे. तेओ कहे छे-शुद्धतामां तो अन्य कारकोथी रहितपणुं भले हो, परंतु अशुद्धतामां तो जड कर्म वगेरे कारको छे; एम के कर्मथी विकृति-विकार थाय छे.

पण एम नथी भाई! अशुद्धता वखते पण जीव अने पुद्गल बन्ने एकबीजाथी निरपेक्षपणे स्वयमेव छ कारकरूप थईने परिणमे छे. विकार थाय छे ते पर्यायमां छ कारकना परिणमनथी थाय छे. आ बाबत विद्वानोथी अनेक वार चर्चा थयेली छे. अमे तो पंचास्तिकाय गाथा ६२ना आधार साथे वारंवार कहेलुं छे के-पर्यायमां विकृत अवस्था पोताना छ कारकना परिणमनथी स्वतंत्र थाय छे, तेमां पर कारकोनी अपेक्षा नथी. त्यां पंचास्तिकाय गाथा ६२मां अति स्पष्ट कह्युं छे के-“कर्म खलु.... , स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते।” कर्म खरेखर... , स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततुं थकुं अन्य कारकनी अपेक्षा राखतुं नथी. वळी त्यां कह्युं छे-“एवं जीवोऽपि.... , स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते।” ए प्रमाणे जीव पण... , स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततो थको अन्य कारकनी अपेक्षा राखतो नथी. आ प्रमाणे अन्य कारकोनी अपेक्षा विना ज जीव पोताना औदयिक आदि भावरूपे परिणमे छे ए निश्चय छे. लोको आ ‘निश्चय छे, निश्चय छे’-एम कहीने आने उडाडे छे, पण निश्चय एटले ज सत्य, ने व्यवहार ए तो उपचार छे. समजाय छे कांई...?

अहा! जेने भेदनो आश्रय छूटीने, परमार्थस्वरूप शुद्ध एक ज्ञायकनो आश्रय थयो एवा सम्यग्द्रष्टि जीवने पर्यायमां विकृत अवस्था होय छे, पण तेनी तेना उपर द्रष्टि नथी, तेनी द्रष्टि त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभाव पर होय छे, अने ते कारणथी धर्मी जीवने विकृत अवस्थाथी रहितपणे परिणमन थाय छे. आ भावशक्तिनुं कार्य छे. धर्मीने पर्यायमां किंचित् विकार होय छे ते ज्ञानना ज्ञेयमां जाय छे, पर ज्ञेयपणे बहार रही जाय छे. अहो! जैनधर्म आवो अलौकिक पंथ छे.

व्यवहारनय जाणेलो प्रयोजनवान छे एम बारमी गाथामां आव्युं ने! ए वात अहीं आमां पण आवी जाय छे. अगियारमी गाथामां कह्युं के-भूतार्थना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. अहाहा...! त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव