भूतार्थ-सत्यार्थ प्रभु छे तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे ते निश्चय; पण तेने व्यवहार छे के नहि? छे ने! समयसारनी बारमी गाथामां कह्युं के-व्यवहार छे. राग होय छे तेने जाणवो-एवो व्यवहारनय छे. रागने जाणवो ते व्यवहारनय, पण राग मारो छे, वा भलो छे एम जाणवुं-मानवुं एवुं एनुं (व्यवहारनयनुं) स्वरूप नथी. अहो! आ समयसारे तो भगवान केवळीना विरह भूलावी दीधा छे. थोडा शब्दे केटलुं भर्युं छे! “कारको अनुसार क्रिया” एम कह्युं छे, पण “जड कर्म अनुसार क्रिया”-एम नथी कह्युं. भाई, तारी पर्यायमां षट्कारक अनुसार विकृत अवस्थारूप क्रिया थाय छे, परंतु विकृत अवस्था रहित भवन एवो तारो भाव गुण छे. समजाणुं कांई...?
अहा! थोडुं लख्युं घणुं करीने जाणजो-एवी आ वात छे. अरे, एणे पोताना स्वरूपने समजवानी कदी दरकार करी नथी. अहीं फरी फरीने कहे छे-भाई, विकृत अवस्थारूप जे क्रिया छे ते क्रियाथी रहितपणे थवुं एवुं तारुं स्वरूप छे, विकृत अवस्था सहित रहेवुं एवो कोई तारो गुण नथी. अहो! निरालंबी शुद्ध चैतन्यनी आ अपूर्व वात छे? कहे छे-रागादि कारकोने अनुसर्या वगर ज सम्यक्त्वादि शुद्धभावरूपे परिणमवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. भाव नाम शुद्धभावरूपे भववुं-थवुं; अहा! शुद्धभावरूपे स्वयं भववानी-थवानी आत्मानी शक्ति छे, तेमां भिन्न बीजा कोई कारकोनी अपेक्षा नथी, भिन्न बीजा कोई कारकोनुं आलंबन नथी. भाई! एक वार आत्मानी आवी अचिन्त्य शक्तिने ओळखे तो बहारमां कयांय मोह न रहे, ने अंतर्मुख थई अल्पकाळमां मुक्ति थई जाय एवी आ अलौकिक वात छे.
समजाय एटलुं समजवुं बापु! पर्यायमां विकार छे ते पर्यायना षट्कारक अनुसार अद्धरथी खडो थयो छे; परना अनुसार विकार नथी, ने स्वद्रव्य-गुण पण विकारनुं कारण नथी. भगवान! तारी चैतन्यवस्तु अंदर एकला वीतरागताना स्वभावथी भरेली छे. ज्यां अंतर्मुख द्रष्टि थई के तरत ज विकारथी रहितपणे भववारूप स्वभावनुं भवन-परिणमन थाय छे. अंतर्मुख द्रष्टिनी आ कमाल छे के द्रव्यद्रष्टिवंत पुरुषने विकारना छ कारकरूप परिणमन छूटीने, मोक्ष प्रत्येना छ कारकोनुं परिणमन शरू थाय छे. माटे हे भाई! तुं अंतर्मुख द्रष्टि कर, तने परमपदनी- मोक्षपदनी प्राप्ति थशे.
हवे जैन नाम धरावीने लोको विवादमां पडया छे के-अमे दिगंबर, ने अमे श्वेतांबर; अरे भाई, अंदर तारी चैतन्य चीज केवी छे ते तो जाण. अहाहा...! वस्तु अंदर एक समयमां पूर्ण विज्ञानघनस्वरूप छे. आनंदनो रसकंद छे. तेने त्रिकाळी कहीए एय व्यवहार छे. अहाहा...! वर्तमानमां पूर्ण त्रिकाळी पोतानी चीज अंदर पडी छे ते त्रिकाळ अनंत शक्तिओथी भरपुर भरी पडी छे. तेमां, कहे छे, विकार रहित भवन-परिणमन थाय एवी एक भावशक्ति छे. अहाहा...! निज स्वरूपमां रमे ते राम नाम आत्मा विकृत अवस्थाथी रहितपणे निर्मळ-निर्मळ परिणमे एवी तेमां एक भावशक्ति छे. तेमां परनो प्रवेश तो दूर रहो, पर्यायमां जे विकृत अवस्था छे तेय पोताना द्रव्य-गुण ने निर्मळ पर्यायमां प्रवेशती नथी. अहो! आ अलौकिक वात छे. अरे! आ जिंदगी एम ने एम चाली जाय छे बापु!
अहाहा...! भगवान! तुं कोण छो? शुं तुं शरीर छो? ना, शरीर तो चामडे मढेलुं हाड-मांसनुं जड अचेतन पोटकुं छे, ने तुं तो चैतन्यघन प्रभु आत्मा छो. तो शुं तुं रागरूप छो? ना, राग पण तुं नथी, केमके राग पण जड अचेतन छे, मलिन-अपवित्र छे, घातक अने दुःखदायक छे; ज्यारे तुं तो पूर्ण सच्चिदानंदमय एकली पवित्रतानो पिंड छो. अहाहा...! पवित्र शक्तिओनो पिंड प्रभु तुं आत्मा छो.
तो पर्यायमां विकृति छे ने? पर्यायमां विकृति छे ते तेना षट्कारकथी ऊभी थई छे, विकृति थाय एवो कोई गुण तारामां नथी, तथा पर्यायमां विकृति थाय तेनो कर्ता कोई पर नथी. अहा! पर्याय पोताना षट्कारकथी विकृत थाय छे, परथी नहि-एम जाणी जे परथी परान्मुख थई परिणमे छे ते विकृतिथी रहितपणे निर्मळ परिणमे छे, ने विकृतिथी रहितपणे निर्मळ परिणमवुं एवो ज भगवान! तारो स्वभाव छे, एवो ज तारो भाव गुण छे. समजाय छे कांई...!
हवे जे व्यवहारथी-रागथी निश्चय थवानुं माने, व्यवहारने साचो मोक्षमार्ग माने एनी मान्यतामां बहु फेर छे. अरेरे! स्वरूपमां डूबकी मारवी जोईए एने बदले ते रागमां डूबकी मारे छे. शुं थाय? ते संसार समुद्रमां अरेरे! कयांय डूबी जशे. भाई रे! तारुं द्रव्य परम पवित्र छे, तारा गुण अत्यंत पवित्र छे, तो पछी तारा परिणमनमां पवित्रता