Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१७८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ आववी जोईए के अपवित्रता? अपवित्रतारूपे थवुं ए तारुं स्वरूप नथी. अपवित्रता पर्यायमां भले हो, पण तेनाथी रहितपणे पवित्रतानुं परिणमन थाय ए भगवान! तारुं स्वरूप छे.

अहा! परथी ने रागथी-विकारथी निरपेक्ष ज्ञान-आनंदरूपे भववानो-परिणमवानो पोतानो स्वभाव छे तेने अज्ञानी जाणतो नथी तेथी ते बहारमां कारणोने शोधे छे ने व्यर्थ आकुळ-व्याकुळ थई दुःखी थाय छे. अरे भाई! पर-निमित्त वस्तु कारण छे ए वात तो दूर रहो, विकारना कर्ता-कर्म आदि छ कारको जे पर्यायमां होय छे ते कारको अनुसार भववानो-परिणमवानो पण आत्मानो स्वभाव नथी. परथी विकार थाय के परथी गुण थाय एम जे माने छे ते तो परावलंबी बहिद्रष्टि मिथ्याद्रष्टि छे. अने रागादि विकारने जे पोतानुं स्वरूप माने छे, विकारथी पोताने गुण थवानुं, भलुं थवानुं माने छे तेय रागी मिथ्याद्रष्टि छे, केमके रागथी भिन्न हुं एक शुद्ध चैतन्यघन आत्मा छुं एम ते जाणतो-अनुभवतो नथी. वास्तवमां ज्ञाता पोते ज शुद्ध एक ज्ञायकस्वभावना आश्रये भेदरूप कारकोनी क्रियाथी रहितपणे शुद्धभावरूपे परिणमे एवो एनो स्वभाव छे. आ भावशक्ति छे.

अरे! जगत अनादि काळथी अनेक प्रकारना विकल्पोनी जाळमां पोतापणुं मानीने चार गतिमां रखडे छे. शुं थाय? पोताना द्रव्य-गुण परम पवित्र छे तेमां पोतापणुं स्वीकारतो नथी, ने आ शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, बैरां- छोकरां इत्यादि जे पर छे तेने पोताना सुखनां कारण मानी तेमां पोतापणुं करी परिणमे छे. पण भाई, ए बधां परद्रव्य तो तेनाथी तेना कारणे परिणमी रह्यां छे, तारा कारणे नहि; तेनी पर्याय तो तेनाथी ज थाय छे. ते बधां पोताना कारणे आव्यां छे, पोताना कारणे रह्यां छे, ने पोताना कारणे चाल्यां जशे. एमां तने शुं छे? ए कोई तने शरण नथी. जो शरण होय तो विरुद्ध केम परिणमे? अने चाल्यां केम जाय? वास्तवमां तेओ तारां कांई ज (संबंधी) नथी. तेमने पोताना सुखनां कारण मानी ठगातो एवो तुं व्यर्थ ज दुःखी-व्यग्र थाय छे.

प्रवचनसार गाथा १६मां ‘स्वयंभू’नी व्याख्या करतां आचार्यदेव कहे छे-“(ए रीते) स्वयमेव छ कारकरूप थतो होवाथी, अथवा उत्पत्ति-अपेक्षाए द्रव्य-भावभेदे भिन्न घातिकर्मोने दूर करीने स्वयमेव आविर्भूत थयो होवाथी, ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे.

आथी एम कह्युं के-निश्चयथी परनी साथे आत्माने कारकपणानो संबंध नथी, के जेथी शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्तिने माटे सामग्री (-बाह्य साधनो) शोधवानी व्यग्रताथी जीवो (नकामा) परतंत्र थाय छे.”

अहीं कहे छे-‘कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति.’ अहाहा...! जुओ तो खरा, थोडा शब्दे केटलुं भर्युं छे! अहा! एक हजार वर्ष पर आचार्य अमृतचंद्रदेव आ भारतभूमि पर विचरता हता. अहा! ए वीतरागी संत-मुनिवर जाणे सिद्धपदने साथे लईने विचरता न होय! एमनी परिणति अंतर्मुख थईने क्षणेक्षणे निज सिद्धपदने भेटती हती. अहा! आवा आ संत-मुनिवरे आ परमागमनी टीकामां परमामृत रेडयां छे. तेमने समयसारनी आ टीका रचवानो विकल्प उठयो. त्यां शब्दोनी रचना तो जड परमाणुओथी थई छे. परंतु टीका रचवानो जे विकल्प आव्यो छे तेनाथी रहित मारुं परिणमन छे एम अहीं तेओ कहे छे. राग सहित जे दशा ते हुं नथी. ल्यो, आवी सूक्ष्म वात!

हवे केटलाक कहे छे-कर्मथी विकार थाय छे, चर्चा करो. अरे प्रभु! तारी पर्यायमां पराश्रये षट्कारक अनुसार विकार उत्पन्न थाय छे, तेमां कर्म कारण छे एम बीलकुल नथी. अशुद्धता काळेय पोताना ज अशुद्ध षट्कारको वडे आत्मा अशुद्धरूपे थाय छे, कर्मने लीधे थतो नथी, पंचास्तिकाय गाथा ६२नी टीका लखतां जयसेनाचार्यदेव कहे छे-“यथैवाशुद्धषट्कारकीरूपेण परिणममानः सन्नशुद्धमात्मानं करोति तथैव शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेणा भेदषट्कारकीस्वभावेन परिणममानः शुद्धमात्मानं करोतीति जेम अशुद्ध छ कारकरूपे परिणमतो थको अशुद्ध आत्माने करे छे, तेम शुद्ध आत्मतत्त्वना सम्यक्-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप अभेद छ कारकरूपे स्वभावथी परिणमतो थको शुद्ध आत्माने करे छे. -आ रीते अशुद्धतामां तेम ज शुद्धतामां अन्य कारकोथी निरपेक्षपणुं छे. अहीं द्रव्यद्रष्टिमां ज्ञानमात्रभावना भवनमां भेदरूप अशुद्ध कारकोनो अभाव ज छे. आम कारको अनुसार जे क्रिया तेनाथी रहितपणे भववानो-परिणमवानो भगवान आत्मानो स्वभाव छे. भाई, तारामां एवो कोई गुण नथी के विकार सहित परिणमन थाय. पर्यायमां पोताना षट्कारकथी स्वतंत्र विकृत अवस्था थई छे, पण तारा स्वभावमां-भावगुणमां एवुं सामर्थ्य छे के तारामां विकारथी रहित निर्मळ शुद्धभावरूप