अहो! समयसारनी टीकाना प्रारंभमां ज उपरथी साक्षात् केवळी उतार्या छे. परमेष्ठीपदमां स्थित मुनिराजनी वाणी परमांथी सुखबुद्धिनी कल्पनानुं विरेचन करावनार औषध छे. श्रीमदे कह्युं छे ने केः-
अहाहा...! जिनवचन ए तो स्वपरनुं भेद-विज्ञान करावी परम शांति पमाडनारां ऐाषध छे. मिथ्यावासनाओथी उत्पन्न थता भवरोगने मटाडनारां छे. पण अरेरे! ते कायर कहेतां विषयवासनाना कल्पित सुखमां राचता एवा नपुंसकोने सुहातां नथी- अनुकूळ लागतां नथी.
आ रीते पर्यायमां सिद्धोने स्थापीने ‘समय’ नामना प्राभृतनुं भाववचन एटले निर्मळ दशा अने द्रव्यवचन एटले विकल्पथी परिभाषण शरू करीए छीए. एम कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे.
अहीं जे कह्युं के अमे सिद्धने नमस्कार करीए छीए ए व्यवहारथी वात उपाडी छे. सिद्ध, साध्य छे ने? एटले पर्यायमां जे सिद्ध स्थाप्या ए जाणवा माटे छे, आश्रय माटे नहीं. आश्रय योग्य ध्येय तो त्रिकाळ, ध्रुव, स्वभावे सिद्ध एवो निज शुद्धात्मा छे.
आगळ १६ मी गाथामां आवशे के ‘साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान अने चारित्रने सदा सेववां’ लोको पर्यायना भेदथी जाणे छे माटे पर्यायथी कथन छे. सेववो छे तो एक आत्मा, त्रण भेद नहीं. त्रण भेद तो पर्याय छे, तेथी ते व्यवहार छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन जे एक स्वरूपे छे एने एकने ज सेववो छे, पण लोको पर्यायथी-व्यवहारथी समजे छे माटे भेदथी कथन कर्युं छे; आदरवा माटे नहीं. तेम अहीं अनंत सिद्धोने पर्यायमां तेनुं ज्ञान कराववा माटे स्थाप्या छे; के साध्य जे सिद्धपद एनुं आवुं पूर्ण स्वरूप छे. ध्येय (ध्यान करवा योग्य) तो द्रव्य छे. भेद पाडवो ते वस्तुनुं ज्ञान कराववा माटे बराबर छे, पण ध्येय तो ‘एक’ द्रव्य ज छे.
मोक्षमार्गप्रकाशकनी पाछळ रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां ज्यां सविकल्पथी निर्विकल्पनुं कथन कर्युं छे त्यां कह्युं छे के ‘चिन्मय आत्मा एकस्वरूपे छे., एमां सर्व परिणाम एकाग्र थाय छे.’ माटे द्रव्य अने परिणाम एक थई गया एम नहीं. (अने द्रव्य अने परिणाम बे थईने द्रष्टिनो विषय बने छे एम पण नहीं.) चिन्मात्र आत्मा के जे द्रव्यार्थिकनयनो-निश्चयनयनो अने सम्यक्दर्शननो विषय छे ते तो एकस्वरूपे ज छे, त्रण रूपे नहीं. त्रण