Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१८४ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ सम्यक्चारित्रनी पर्याय, केवळज्ञाननी पर्याय-एम क्रमवर्ती प्रगटेली निश्चित निर्मळ पर्याय ते सिद्धरूप भाव छे.

अनंतगुण-स्वभावनो पिंड प्रभु आत्मा छे. तेनी अंतर्द्रष्टि करी परिणमतां निर्मळ पर्यायरूप कर्म प्राप्त थाय छे. आ आत्मानुं कर्म छे. ‘कर्म’ कहेतां अहीं जड द्रव्यकर्म के रागादि भावकर्मनी वात नथी. ते आत्मानुं कर्म नथी, पण चैतन्यस्वभावमांथी जे सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय ते आत्मानुं कर्म छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यना आश्रये क्षणे क्षणे जे निर्मळ निर्मळ भाव प्रगट थाय छे ते प्राप्त थतो सिद्धरूप भाव छे. वस्तुमां शक्तिरूपे त्रिकाळ भाव छे ते व्यक्त पर्यायरूपे प्रगटतां तेने सिद्धरूप भाव कह्यो छे. सम्यग्दर्शनादि बधी पर्यायो आ रीते सिद्धरूप भाव छे. आ प्राप्त थतो सिद्धरूप भाव ते आत्मानुं कर्म छे, अने आत्मा पोतानी शक्तिथी ते-रूप थाय छे एवी तेनी कर्मशक्ति छे. आवी वात! समजाणुं कांई...?

अहाहा...! ‘प्राप्त करातो...’ जोयुं? ‘प्राप्त करातो’-एम कह्युं छे, मतलब के जे समये जे पर्याय प्राप्त थवा योग्य होय ते समये ते ज पर्याय उत्पन्न थाय छे. तेने अहीं प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव कहेल छे. अहाहा...! पुरुषार्थथी प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी एक कर्मशक्ति जीवद्रव्यमां छे. अनंत गुण-शक्तिनो आश्रय आत्मद्रव्य छे, ने द्रव्यना आश्रये पुरुषार्थ छे. आम स्वद्रव्यना आश्रये प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूपभाव ते-मयी कर्मशक्ति छे. वर्तमान निर्मळ पर्यायनी प्राप्तिरूप कर्म ते कर्मशक्तिना कार्यरूप छे; ते व्यवहाररत्नत्रयनुं कार्य नथी, ने ते पूर्वपर्यायनुं पण कार्य नथी. अन्य भिन्न कारको तो कयांय दूर रही गया. झीणी वात भाई! कहे छे-कर्म नामनी जीवमां एक शक्ति छे जेथी द्रव्यना आश्रये सहज ज निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय छे.

जुओ, ‘कर्म’ शब्द चार अर्थमां आवे छेः १. ज्ञानावरणादि जड द्रव्यकर्मने कर्म कहे छे, २. राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भावकर्मने कर्म कहे छे, ३. सम्यग्दर्शनादि निर्मळ परिणतिने कर्म कहे छे, अने ४. अहीं जेनुं वर्णन छे ते जीवनी कर्मशक्तिने कर्म कहे छे. तेमां, - -जड द्रव्यकर्म निज चैतन्यवस्तु आत्माथी भिन्न चीज छे. ते आत्मानी चीज नथी. अज्ञानीओ, कर्म नडे छे -एम कर्म... कर्म पोकारे छे, पण भाई, ए आत्मानी कोई चीज नथी.

-राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि विकारी भाव ते य आत्मानुं वास्तविक कर्म नथी. अज्ञानीओनुं कार्य ते हो, केमके तेमां तेओ तन्मय छे, पण ज्ञानी तेमां तन्मय नथी, ज्ञानीनुं ते कर्म नथी. शुं कीधुं? दया, दान, व्रत, तप आदि व्यवहाररत्नत्रयनो राग ते ज्ञानीनुं कर्म नथी, ज्ञानीना ज्ञानमय भावथी ए भिन्न ज छे. समजाणुं कांई...?

-स्वद्रव्य-शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये सम्यग्दर्शन निर्मळ निर्मळ पर्यायनी प्राप्ति थाय छे ते आत्मानुं प्राप्त कर्म छे. केमके आत्मा तेमां तन्मय छे, आत्मा स्वयं ते-पणे थईने तेने प्राप्त करे छे. जुओ, आ प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव-आ आत्मानुं-धर्मात्मानुं वास्तविक कर्म छे.

-जेम ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि गुण छे तेम आत्मामां कर्म नामनो एक गुण छे. आ कर्मगुण होतां, आत्मा स्वयं पोतानी सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ पर्यायने प्राप्त करे छे, पहोंचे छे. अहीं कह्युं ने के-‘प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी कर्मशक्ति.’ अहा! आत्माना जे आवा स्वभावने जाणी अंतर्मुख प्रतीति करे छे तेने द्रव्यकर्म, भावकर्मनो संबंध छूटी जाय छे. समजाणुं कांई...?

प्रश्नः– समजीने करवुं शुं? उत्तरः– समजीने अंतर्मुख, द्रव्य उपर द्रष्टि देवी. वर्तमान सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्यने द्रव्य पोते ज प्राप्त करे-पहोंचे एवो द्रव्यनो-भगवान आत्मानो स्वभाव छे, शक्ति छे एम यथार्थ निर्णय करवो. भाई, व्यवहार रत्नत्रयना रागथी के देव-गुरु-शास्त्रना निमित्तथी सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्य थाय एम वस्तुस्वरूप नथी. बहारमां निमित्त हो, पण निमित्तथी कार्य थाय छे एम त्रणकाळमां नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागी मोक्षमार्गनी परिणति ते आत्मामां प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे, अने ते-मय कर्मशक्ति छे, अर्थात् कर्मशक्ति तेमां तन्मय छे, अर्थात् कर्मशक्तिनुं ते कर्म छे. आवी वात!