Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४१-कर्मशक्तिः १८प

अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंद प्रभु त्रिकाळ ध्रुवस्वभावी वस्तु छे. आ ध्रुवमां एक कर्म नामनी शक्ति छे जेनाथी एनुं वर्तमान कार्य सुधरे छे. धीरजथी सांभळवुं बापु! आ तो धर्मकथा छे भाई! कहे छे-तारुं जे आत्मद्रव्य छे ते अनंतगुणमय गुणी छे, तेमां कर्म नामनो एक गुण छे, कर्म एटले कार्य थाय एवो तेमां गुण छे. आ कर्म गुणना कारणे वीतरागी निर्मळ कार्य प्राप्त थाय छे. भाई, आ कर्मगुण तारुं कार्य सुधरवानुं कारण छे. माटे बीजे जोईश मा, अंदर ज्यां शक्ति छे तेमां जो, ने तेमां ज ठरी जा.

ओहो...! अंदर जुओ तो अनंत अनंत शक्तिनो अखूट-अक्षय भंडार भर्यो छे. प्रभु! तारामां एक जीवत्व शक्ति छे. ते जीवत्व शक्तिमां आ कर्मशक्तिनुं रूप छे, जेथी ज्ञान, दर्शन, आनंद, सत्ता-एवा जे शुद्धप्राण-तेना निर्मळ कार्यरूप वास्तविक जीवन प्राप्त थाय छे. आ जीवनुं जीवन छे. निर्मळ रत्नत्रयनुं प्राप्त थवुं ते जीवनुं जीवन छे. शरीर वडे जीववुं ए जीवनुं जीवन नथी, बहारमां मन, वचन, काय इत्यादि दश प्राण वडे जीववुं ए जीवनुं जीवन नथी, ने भावेन्द्रियथी जीववुं ए पण जीवनुं वास्तविक जीवन नथी. अहाहा...! दश प्राणोथी भिन्न अने अंदर भावेन्द्रियना कार्यथी भिन्न, ज्ञान, दर्शन, आनंद अने सत्तानुं-शुद्ध चैतन्य प्राणोनुं निर्मळ कर्मपणे परिणमन थाय ते जीवनुं जीवन छे. ल्यो, आवुं जीवन ते साचुं जीवन; बाकी तो चार गतिनी रखडपट्टी छे. समजाणुं कांई...?

भाई, तारा कार्यपणे निर्मळ रत्नत्रयनुं कार्य थाय तेनुं कारण कोण? तो कहे छे-तारामां कर्म नामनो गुण छे ते आ निर्मळ पर्यायनुं कारण छे. मोहनीय आदि कर्म खसी जाय तो निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थाय एम नथी. अने पूर्वनी निर्मळ पर्याय पण वर्तमान निर्मळ पर्यायनुं वास्तविक कारण नथी. ए तो तारुं आत्मद्रव्य ज निज शक्तिथी क्षणे क्षणे निर्मळ कार्यरूपे परिणत थाय छे. भाई! निर्मळ रत्नत्रयरूप कर्म कयांय बहारथी आवतुं नथी, आत्मामां ज ते-रूप थवानी शक्ति छे. निज स्वभावनी सन्मुख थतां आत्मा पोते ज तेवा कार्यरूपे परिणत थाय छे. अहा! जुओ आ कर्मशक्ति! पोतानुं कार्य (ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि) पोते प्राप्त करे एवो ज आत्मानो स्वभाव छे. पण जडनुं करे के विकार करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी, जड कर्म के विकार ते आत्मानुं कर्म नथी.

अहाहा...! निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-आनंदनी शुद्ध पर्यायपणे परिणमवुं-ते भावने प्राप्त करवो-पहोंचवुं ते आ कर्मगुणनुं कार्य छे. हवे आवुं कदी काने य पडयुं न होय ते शुं करे? अरेरे! चार गतिमां बिचारा रझळी मरे. अहीं कहे छे-पोतानी निर्मळ वीतरागी पर्यायने पोते प्राप्त करे एवो पोतानो-आत्मानो गुण छे. आनुं नाम कर्मशक्ति छे. आ कर्मशक्ति ध्रुव उपादान छे, ने तेनी निर्मळ परिणति ते क्षणिक उपादान छे. कर्मशक्ति जे ध्रुव छे ते पारिणामिक भावे छे, ने तेनो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणमननी प्राप्तिरूप जे भाव छे ते उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक भावे छे. जड कर्मनो उपशम थयो माटे अहीं निर्मळ उपशमभावनी पर्याय प्रगटी एम नथी. ए तो जीवनो त्रिकाळी कर्म- गुण-स्वभाव एवो छे जेथी उपशमभावरूपी कार्य सिद्ध थाय छे. अहो! आवुं जैनदर्शननुं स्वरूप सूक्ष्म छे, तेने आचार्य भगवंतोए स्पष्ट खुल्लुं कर्युं छे.

दया पाळो, व्रत करो, भक्ति करो, उपवास करो... इत्यादि-ए कांई धर्म नथी. आ तो बे घडी सामायिक लईने बेसे ने माने के थई गयो धर्म; पण बापु! सामायिक तो अंदरनी चीज छे; तने ते सामायिकना स्वरूपनी खबर नथी. आ तो हजु चोथा गुणस्थाने तो एकलुं व्यवहार समकित होय, ने निश्चय समकित तो सातमा गुणस्थानथी होय. अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? व्यवहार समकित तो उपचार छे, ने निश्चय विना कोनो उपचार? तारी वात बराबर नथी. चोथा गुणस्थानथी ज आत्मानी निर्विकल्प श्रद्धारूप निश्चय वीतराग समकित ज्ञानीने प्रगट थाय छे, ने त्यारे देव-गुरु-शास्त्रनी एनी श्रद्धाने उपचारथी व्यवहार समकित कहे छे.

आ तो शांतिथी समजवानी चीज छे. वीतरागना आ मार्गनो वर्तमानमां बहुधा विच्छेद थई गयो छे. संप्रदायमां आ वात चालती नथी. तुं भगवान छो ने भाई! भग नाम ज्ञान अने आनंदनी लक्ष्मी, अने वान नाम ते-रूप. ज्ञान ने आनंदनी लक्ष्मीरूप तुं भगवान छो ने प्रभु! अहाहा...! आ धूळनी लक्ष्मी कांई तारी चीज नथी, पण अंदर चैतन्यलक्ष्मीरूप भंडारमां तारी एक कर्मशक्तिरूप लक्ष्मी छे. अहाहा...! तारामां सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ रत्नत्रयरूप धर्मनुं कार्य प्रगट थाय तेना कारणरूप अंदर कर्मशक्तिरूप लक्ष्मी पडी छे. माटे प्रसन्न था, ने व्यवहारनो आश्रय छोडी, ज्यां आ लक्ष्मी पडी छे एवा तारा चैतन्यनिधानने जो, तने अद्भुत आह्लाद थशे, प्रदेश-प्रदेशे अनाकुळ आनंद