१८६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ ऊछळशे. आनुं नाम समकित ने आ धर्म छे.
अरे, सांभळ भाई! व्यवहार समकित ते कांई समकित नथी. व्यवहार समकित ए तो विकल्प-राग छे. द्रव्यद्रष्टि थये श्रद्धागुणना कार्यरूप निर्विकल्प निश्चय समकित प्रगट थाय छे, ने तेने सहचरपणे जे देव-गुरु-शास्त्र संबंधी शुभराग होय छे तेने उपचारथी आरोप दईने व्यवहारसमकित कहेवामां आवे छे. वास्तवमां ते राग ज छे, ने ते सिद्धभावरूप आत्मानुं कर्म नथी, तथा एनाथी निर्मळ पर्यायरूप आत्मानुं कर्म थाय छे एम पण नथी. वास्तवमां सम्यग्दर्शननो उत्पाद थवामां श्रद्धागुण कारण छे. श्रद्धागुणमां कर्मशक्तिनुं रूप छे ने! माटे ते भाव प्राप्त कराय छे. भाई, श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, आनंद-एम दरेक गुणमां पोतानी निर्मळ पर्यायरूप कर्म प्रगट थाय छे ते प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे, ने ते-मयी कर्मशक्ति छे.
स्वाध्यायनो विकल्प होय छे, पण ते विकल्पथी सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे एम नथी. ए तो आत्मानो एवो ज्ञानस्वभाव छे के जेथी ते पोताना सम्यग्ज्ञानरूप कर्मने प्राप्त करे.
तेवी रीते पंचमहाव्रतादिनो विकल्प होय छे, पण ते विकल्पथी सम्यक्चारित्ररूप निर्मळ कार्य थाय छे एम नथी. ए तो आत्मानो एवो चारित्र स्वभाव छे के जेथी ते पोताना सम्यक्चारित्ररूप कर्मने प्राप्त करे.
आ प्रमाणे श्रद्धा, आनंद इत्यादि आत्माना बधा ज गुणोमां समजवुं. आत्माना ज्ञान, चारित्र, आनंद आदि बधा गुणमां कर्मशक्तिनुं रूप छे. तेथी आत्मा पोते पोताना निर्मळ स्वभावरूप कर्मने प्राप्त करे ज छे. ज्यां निजस्वरूपना लक्षे अंतर-एकाग्र थाय के स्वभावना आश्रये श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र-आनंद वगेरेनुं निर्मळ निर्मळ कार्य प्रगट थाय ज छे. त्यां ‘हुं आ निर्मळ कार्य प्राप्त करुं’ एवी भेदवासना रहेती नथी, केमके पोतानी कर्मशक्तिथी पोते स्वयमेव निर्मळ कार्यरूप थई जाय छे. आवी सूक्ष्म वात छे.
व्यवहार समकितमां संवेग, निर्वेद, आस्था, अनुकंपा-ए बधा विकल्प छे. ए विकल्पथी रहित कर्मगुणना कारणथी सम्यग्दर्शनरूपी वीतरागी पर्यायनुं कार्य प्रगट थाय छे. पुण्य अने विकल्पथी एनी सिद्धि थती नथी. बहारमां अनुकूळ निमित्तथी कार्य थयुं एम निमित्तनी मुख्यताथी कहेवाय, पण एम छे नहि. कोई कहे के-अहो! भगवान! आपनी कृपाथी कार्यसिद्धि थई, पण एम छे नहि, वस्तुस्वरूप एवुं नथी.
प्रश्नः– महाराज! लोको कहे छे आपनी आ लाकडी फरे तो पैसा मळी जाय छे? उत्तरः– लोको कहे छे ए तो लोकमूढता छे भाई! बाकी आ लाकडीमां कांई माल नथी. हमणां ज एक लाकडी चोराई गई, कोईक लई गयुं (अंदर मूढता छे ने?) आ लाकडी तो अमे हाथमां एटला माटे राखीए छीए के शास्त्रने परसेवावाळो हाथ अडी जाय तो असातना थाय. बाकी लाकडीमां कांई जादु नथी के एनाथी पैसा मळे.
जुओ, बेंग्लोरमां एक शेठे भव्य जिनालय बंधाव्युं. तेनी प्रतिष्ठानो मोटो उत्सव थयो. शेठ पंदरेक दिवस उत्सवना काममां रोकाया, तो दुकानमां माल हतो ए वेचाता विना पडी रह्यो. बन्युं एवुं के पछी एना भाव वधी गया, ने शेठने अढळक पैसा मळ्या. पण ए तो पूर्वना पुण्यना कारणे लक्ष्मी आवे छे भाई! अने एमां य शुं छे? लक्ष्मी-धूळ आवी एमां आत्माने शुं लाभ? भगवान! वीतरागी निर्मळ सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय ए तारुं कर्म छे, ने ए लाभ छे. बाकी तो बधी धूळनी धूळ छे, ने तेना लक्षे चार गतिनी रझळपट्टी छे. समजाणुं कांई...?
अहा! धर्मी जीव एम जाणे छे के सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद पर्यंतनां जे परम पदो छे ते प्राप्त करवानी शक्ति मारा आत्मामां छे, ने ते ज मारां कर्म छे; ए सिवाय बहारमां मोटां राजपद के देवपद वगेरे प्राप्त थाय ते कांई मारां कर्म नथी. कर्तानुं इष्ट ते कर्म. अहा! मने मारा ज्ञान-आनंद स्वभावमांथी प्राप्त थती जे निर्मळ रत्नत्रयरूप अवस्था ते ज मारुं इष्ट कर्म छे, आ सिवाय पुण्य ने पुण्यना फळरूप प्राप्त संयोग ते मारुं कांई ज नथी. जुओ आ धर्मीनी अंतर्द्रष्टि!
धर्मीने पहेलां पर्यायमां शुद्धि अल्प हती, पछी क्रमे विशेष शुद्धि थई. शुद्धिनी वृद्धि थई ते निर्जरा छे. निर्जराना बे प्रकार छेः द्रव्यनिर्जरा, ने भावनिर्जरा. जड कर्मनुं खरी जवुं ते द्रव्यनिर्जरा छे, ने ते काळे अशुद्धतानो व्यय थईने शुद्धिनी वृद्धि थाय ते भावनिर्जरा छे. धर्मीने जे शुद्धिनी वृद्धिनुं कार्य थयुं तेनुं कारण, अहीं कहे छे, द्रव्यनी कर्मशक्ति छे. पूर्वपर्याय निर्मळ हती माटे पछीनी पर्याय विशेष निर्मळ थई एम नथी. पूर्वे मोक्षमार्गनी पर्याय हती माटे वर्तमान