१८८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ पण दुःखनी पर्याय जुदी-अहा! आवा दुःखमय स्थानमां तारो अनंत काळ गयो छे प्रभु! अहा! ए पारावार दुःखनुं शुं कहेवुं? भाई, ए दुःखथी मुक्त थवुं होय तो जेमां अनंत शक्ति भरी छे एवा तारा द्रव्यनी संभाळ कर, तारा चैतन्यद्रव्यनी रक्षा कर. हुं शुद्ध एक चिदानंदस्वरूप छुं-एम अंतर्द्रष्टि वडे प्रतीति करवी ने तेमां रमणता करवी ए तेनी रक्षा छे. आ सिवाय बधी हिंसा ज हिंसा छे, आत्मघात छे. समजाय छे कांई...!
भाई, तारी चिद्घन-चैतन्यवस्तु ध्रुव त्रिकाळ छे. तेनी एक कर्मशक्ति ध्रुव त्रिकाळ छे. स्व-आश्रये शक्ति परिणमतां निर्मळ पर्यायरूप कर्म जे नीपजे ते प्राप्त करातो सिद्धरूप भाव छे. अहा! ते भावना कारणरूप कर्मशक्ति छे एम जाणी द्रव्यद्रष्टि करतां पर्यायमां निर्मळतारूप सुधारो थाय छे. आवो मारग छे. आ सिवाय उन्मार्ग छे.
आ प्रमाणे अहीं कर्मशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामयी कर्तृशक्ति.’ अहाहा...! चैतन्य गुणरत्नाकर प्रभु आत्मा छे. तेमां, अहीं कहे छे, एक कर्तृ-कर्तापणानो गुण छे. थवापणारूप अने सिद्धरूप भावना भावकपणामय आ कर्तृत्व गुण छे. अहाहा...! वर्तमान सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप निर्मळ भाव प्रगट थाय ते थवापणारूप अने सिद्धरूप भाव छे, तेनो भावक अर्थात् ते भावनो कर्ता, कहे छे, भगवान आत्मा छे. अहाहा...! वर्तमान थवा योग्य ने सिद्धरूप भावनो कर्ता थईने आत्मा ते भावने भावे-करे एवो आत्मानो कर्तृस्वभाव छे. पोतानी कर्तृशक्तिथी आत्मा पोते ज स्वाधीनपणे पोताना सम्यग्दर्शनादि निर्मळ भावने करे छे.
पहेलां कह्युं के-प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप भाव ते-मयी कर्मशक्ति छे. मतलब के आत्मा पोते ज पोताना सिद्धरूप भाव-थवायोग्य निर्मळ भावने कर्मपणे प्राप्त थाय एवी एनी कर्मशक्ति छे. हवे, प्राप्त करातुं आ निर्मळ भावरूप कर्म, जेने सिद्धरूपभाव कह्यो, तेनो कर्ता कोण?-एम विचारतां कहे छे-कर्तापणुं जेनो स्वभाव छे एवो आत्मा पोते ज पोताना ए भावनो कर्ता छे. अहाहा...! निज आत्मद्रव्यना आश्रये कर्तृशक्ति छे एम जाणी जेणे निज त्रिकाळी द्रव्य द्रष्टिमां लीधुं ते स्वयं कर्ता थईने पोताना सम्यग्दर्शन आदि भावरूपे परिणमे छे.
अहीं सिद्धरूप भाव एटले सिद्ध पर्याय एम अर्थ नथी. पण जे थवायोग्य वर्तमान निश्चित-चोक्कस वीतरागी निर्मळ पर्याय थई तेने अहीं सिद्धरूप भाव कहेल छे. साधकनी सम्यग्दर्शनथी मांडी सिद्धपद पर्यंतनी निर्मळ पर्याय जे क्रमे प्राप्त थवायोग्य थाय छे तेने अहीं सिद्धरूप भाव कह्यो छे. ते सिद्धरूप भावना कर्तापणामय आत्मानी कर्तृशक्ति छे. वर्तमान निर्मळ रत्नत्रय ते थवापणारूप-भवनरूप भाव छे, ने ते भवनरूप भावमां तन्मय थईने, तेनो भावक थईने, आत्मा पोते तेने भावे छे एवी तेनी कर्तृशक्ति छे. ल्यो, हवे आमां व्यवहार रत्नत्रयथी निश्चय थाय एम कयां रह्युं? भाई! व्यवहारना-विकल्पना आलंबन वगर ज निजशक्तिथी कर्ता थईने स्वाधीनपणे आत्मा पोताना निर्मळ निर्मळ भावोरूप परिणमे छे. अहा! एकेक शक्तिना वर्णनमां गजबनी वात करी छे.
बहेनना वचनामृतमां सादी भाषामां बहु सारी वात आवी छेः “जागतो जीव ऊभो छे, ते कयां जाय? जरूर प्राप्त थाय” ल्यो, भाषा सादी, ने भाव सरस, जाणे अमृत. ‘जागतो जीव’ एटले जाग्रत चैतन्य ज्योतिस्वरूप एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा; ‘ऊभो छे’-एटले के ते त्रिकाळ ध्रुव अस्तिपणे छे. अहाहा...! एक ज्ञायकभावस्वरूप भगवान आत्मा छे ते त्रिकाळ टकवापणे-होवापणे ध्रुव छे, ने तेमां नजर करतां ते अवश्य प्राप्त थाय छे, अर्थात् तेनां श्रद्धान-ज्ञान-आचरण अवश्य प्रगट थाय छे. अहा! धर्मीने जे आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान- आचरणरूप कर्म प्रगट थयुं तेनो कर्ता कोण? तो कहे छे-धर्मी (-आत्मा) पोते ज कर्तापणुं ग्रहण करीने निर्मळ ज्ञान-श्रद्धान-आचरणरूप निज कर्मने प्रगट करे छे; तेने कोई अन्य भिन्न कारकोनी गरज नथी. समजाय छे कांई...?
अहा! आत्मानी आ कर्तृशक्ति एवी छे के पोताना श्रद्धान-ज्ञान आदि निर्मळ कार्यना कर्ता पोते ज थाय छे;