१९२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
आ तो अमृतचंद्रदेवे एकलां अमृत पीरस्यां छे भाई. अमृतस्वरूप अनंत शक्तिवान निज द्रव्यने जाणी तेनी द्रष्टि-ज्ञान-रमणता करवां ते करवायोग्य कार्य छे, अने ते परम हित छे.
आ प्रमाणे अहीं कर्तृशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘भवता (-वर्तता, थता) भावना भवनना (-थवाना) साधकतमपणामयी (-उत्कृष्ट साधकपणामयी, उग्र साधनपणामयी) करणशक्ति’.
आत्मा पोते कर्ता थईने पोताना सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ कार्यने करे छे; ए तो ठीक, पण एनुं साधन शुं? एम के कर्ता कया साधनवडे पोतानुं कार्य साधे छे? ल्यो, आना समाधानरूप कहे छे-
‘भवता भावना भवनना साधकतमपणामयी करणशक्ति छे.’ आत्मानी आ शक्ति वडे आत्मा पोते ज पोताना निर्मळ भावनुं साधकतम साधन थाय छे. ‘भवता भावना भवनना...’ , भवतो भाव एटले शुं? के वर्तमान वर्ततो निर्मळ भाव, वर्तमान सम्यग्दर्शन आदि निर्मळ भाव ते भवतो भाव छे, ते कार्य छे; ते कार्य थवानुं उत्कृष्ट साधन आत्मा पोते ज छे. अहाहा...! साधकने वर्तमान सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कार्य वर्ते छे तेनुं साधकतम साधन साधकनो आत्मा पोते ज छे. ‘साधकतम’ केम कह्युं?-के नियमरूप अबाधित साधन आ (-आत्मा) एक ज छे. गजब वात भाई! व्यवहार रत्नत्रय ते साधन नथी, ने अन्य पदार्थ पण कोई साधन नथी-एम अहीं कहे छे. समजाणुं कांई...?
अहाहा...! आत्मा ज्ञायक प्रभु गुणी-स्वभाववान छे, ने ज्ञानादि तेना गुण छे. तेना गुणने अहीं शक्ति कहे छे. गुण कहो, शक्ति कहो के स्वभाव कहो-बधी एक ज वस्तु छे. आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. अहाहा...! अनंत शक्तिओनो अभेद एक पिंड प्रभु आत्मा छे. अहा! आ अभेद एकरूपनी द्रष्टि करवाथी धर्मनुं प्रथम पगथियुं एवुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. जुओ आ धर्मनी शरुआतनुं कार्य! हा, पण तेनुं साधन शुं? व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि एनुं साधन खरुं के नहि? तो कहे छे-ना, ए कोई साधन नथी, केमके एनाथी धर्म थवानो नियम नथी. करणशक्ति वडे आत्मा पोते ज तेनुं साधकतम साधन थई सम्यग्दर्शनरूप परिणमे छे. आत्मामां ज तेनुं नियमरूप साधन थवानी शक्ति छे. आवी वात!
हवे आवुं कदी सांभळ्युं न होय तेने आ एकदम कठण पडे. एम के दया करवी, व्रत पाळवां, भक्ति-पूजा करवी, जात्रा करवी-एनाथी ज अमे तो धर्म थवानुं मानीए छीए, ने आ ते केवो धर्म काढयो?
अरे भाई, तने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. धर्म तो एने कहीए जेमां राग रहित अंदर पोतानी त्रिकाळी चीज छे तेनी द्रष्टि अने आलंबन होय, जेमां अनाकुळ आनंदना वेदनवाळी स्वानुभवनी वीतरागी दशा होय. अहाहा...! भेदना पक्षथी रहित थईने पोतानी अभेद एकरूप चिन्मात्र वस्तु अंदर छे तेनी द्रष्टि करवाथी धर्मनुं प्रथम चरण एवुं सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे. आ सिवाय तारुं बधुं ज थोथां छे बापु! तने गमे न गमे, आ भगवान आत्मानी भागवत-स्वरूप कथा छे; सर्वज्ञ वीतराग जैन परमेश्वरे धर्मसभामां कहेली आ आत्मानी धर्मकथा छे. प्रभु! एक वार मन दईने धीरजथी सांभळ. तारी चीजमां वर्तमान थवायोग्य जे निर्मळ धर्मना परिणाम थाय तेना साधकतमपणामयी तारामां करणशक्ति छे. ओहो...! धर्मने साधनारा धर्मना स्थंभ एवा वीतरागी संतो-मुनिवरो भगवान केवळीना आडतिया थईने आ वात जगतने जाहेर करे छे.
भाई, आमां कांई आडुं-अवळुं करवा जाय तो कांई हाथ आवे एम नथी. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम ते भवतो भाव छे. तेना भवनना उत्कृष्ट-एकमात्र निर्बाध-साधनरूप आत्मामां करणशक्ति छे. जुओ आ साधन!
प्रश्नः– हा, ए तो निश्चय अभिन्न साधन कह्युं; पण शास्त्रमां भिन्न साधन-साध्य पण कह्युं छे. उत्तरः– भाई, त्यां ए तो बाह्य निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. रागनी मंदतारूप व्यवहार रत्नत्रय ते साधन अने निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रय ते साध्य-एम कह्युं छे ए तो बाह्य व्यवहारनुं ज्ञान कराववा माटे