छे. अहा! ते निज घरनुं-निज चैतन्यधामनुं तारे वास्तु लेवुं होय तो तारा अभेद स्वद्रव्यनी द्रष्टि करवी पडशे; निमित्तनी नहि, पर्यायनी नहि, रागनी नहि ने गुणभेदनीय नहि. ध्रुव स्वभाव एक ज्ञायकभाव स्वद्रव्य छे, एनी द्रष्टि करवाथी स्वघरनुं-अनंत सुखधामनुं वास्तु थाय छे. आवी वात!
हवे कयांक आवी तत्त्वनी वात सांभळवा मळे नहि, ने पैसा रळवामां ने बैरां-छोकरां साचववामां ने विषय-कषायना भोगमां-एम ने एम जिंदगी बिचारानी चाली जाय! मांड कोईक दि’ कलाक-बे कलाक कदाच सांभळवानो वखत मळे तो कुगुरु बिचाराने लूंटी ले. वाणिया एम तो बीजे न छेतराय, पण अहीं धर्ममां छेतराई जाय छे. दान करो, भक्ति करो, सम्मेदशिखर ने शत्रुंज्यनी जात्रा करो-बस, पछी शुं छे? आ ज धर्म-अहा! आवो उपदेश मळे ने वाणिया छेतराई जाय. लोभिया खरा ने! बधे ज सस्तु शोधे. जेम सस्ता फळ लावे, ने पछी बगडेलां-सडेलां ने खाटां नीकळे एटले फेंकी देवां पडे; एम अहीं शुभभावमां सस्तो मार्ग शोधी लावे पण मोंघो पडी जाय, केमके एमां कयांय धर्म नथी. बिचारा धर्मना नामे छेतराई जाय! त्यारे कोई वळी कहे छे-
पण सम्मेदशिखरनी यात्रानो तो बहु महिमा कर्यो छे. कह्युं छे के-
अरे भाई, शुभभावथी पुण्य बंधाता एक वार कदाच नरक-पशुगति न मळी तो तेमां शुं फायदो थयो? स्वर्गनुं आयुष्य पूरुं करीने अज्ञानवश पशु थशे अने पछी नरके जशे. अरे भाई, तने पुण्यनुं फळ देखाय छे, पण अज्ञाननुं ने मिथ्याभावनुं फळ नथी देखातुं. बापु! मिथ्याभावनुं फळ परंपराए निगोद छे भाई! ज्यां सुधी आत्मज्ञान नथी, स्वभावनुं साधन नथी, स्वरूपनां प्रतीति ने विश्वास नथी तो क्रियाकांडना आलंबने एकाद भव स्वर्गनो मळी जाय, पण पछी तिर्यंच थईने नरक के निगोदमां जीव चाल्यो जशे; तेने भवनो अभाव नहि थाय. भवना अभावनुं साधन तो स्वभावना आलंबनथी ज प्रगट थाय छे.
अहा! साधकने वर्तमान निर्मळ वीतरागी भावना भवननुं कारण आत्मानी करणशक्ति छे. प्रश्नः– हा, पण ते उत्कृष्ट साधन कह्युं छे; पण जघन्य साधन बीजुं कांई छे के नहि? दया, दान, व्रत आदि शुभभाव थाय ते जघन्य साधन छे के नहीं?
उत्तरः– ना, शुभभाव साधन नथी. ए तो धर्मीने बहारमां निमित्तरूप ने सहचर केवो शुभभाव होय छे तेनुं ज्ञान कराववा एना ते शुभभावने आरोप दईने उपचारथी साधन कह्युं छे, पण ते नियमरूप साधन नथी, ते साधन ज नथी. उत्कृष्ट साधन एटले एकमात्र नियमरूप साधन-एवो अर्थ थाय छे. समजाणुं कांई...? भवना छेदरूप साधकनुं खरुं साधन एकमात्र आत्मस्थित निर्मळ परिणत साधनशक्ति छे. आवी वात छे.
आमां थोडा शब्दे घणी बधी वात करी छे. अनंतगुणधाम प्रभु आत्मामां एक चारित्र गुण छे. ते चारित्र स्वभावमां करण-साधन शक्तिनुं रूप छे; जेथी वीतरागी पर्यायनुं कारण ते चारित्र गुण थाय छे, अर्थात् चारित्र गुण वडे आत्मा पोते ज साधन थईने चारित्रनी वीतरागी दशारूप परिणमे छे. ओहो...! चारित्रनी अकषाय वीतरागी परिणति संत-मुनिवरोने होय छे ने? तेनुं साधकतम साधन अंदर चारित्र परिणत आत्मा छे. आ मुनिवरोने तेमनी दशामां प्रचुर आनंदनुं वेदन होय छे. सम्यग्दर्शनमां आनंदनुं वेदन छे, पण प्रचुर आनंदनुं वेदन नथी. वीतरागी निर्ग्रंथ दिगंबर संत-मुनिवरने प्रचुर आनंदनुं वेदन होय छे. जुओ, वस्त्र सहित होय ते कोई साधु नथी; तेम ज खाली व्रत, तपनां साधन करे ते साधु नथी, कारण के ए तो बधो राग छे ने ए बंधननुं कारण छे.
भाई, त्रणलोकना नाथ केवळी परमात्मा ए कहेली वात अहीं संतो आडतिया तरीके जाहेर करे छे. जन्म- मरण मटाडवाना बीजरूप सम्यग्दर्शन छे. अहो! सम्यग्दर्शननो महिमा अपार छे. धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. तेथी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते धर्म नाम चारित्रनो उपाय छे. चारित्रदशा जेने प्रगट थाय तेने बहारमां देहनी नग्न दशा थई जाय छे. बहारमां देहथी नग्न अने अंदर रागथी नग्न-एवी वीतरागी संत मुनिवरनी चारित्र दशा होय छे. तेने वच्चे पंच महाव्रतनो विकल्प आवे छे, पण ते कांई चारित्र नथी, चारित्रनुं साधनेय नथी. अहाहा...! अंदर स्वस्वरूपमां प्रचुर आनंदपूर्ण रमणता होय ते चारित्र छे. ते चारित्रनुं साधन शुं? पंच महाव्रत ने पंच समितिनो विकल्प ते साधन छे? ना, ते साधन नथी. चारित्रगुणमां करणशक्तिनुं रूप छे, जेथी आत्मामां निजस्वभाव साधन वडे वीतरागी चारित्र पर्यायनुं भवन थाय छे. आवो मारग छे भाई! वस्त्र सहित कोई मारग नथी, ने व्रतादिना रागने साधन माने