१९६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ तेय मारग नथी; ए तो उन्मार्ग छे.
आत्माना आनंदना भोगनुं कारण बहारनी चीज नथी. स्त्रीना शरीरनो के गुलाब जांबुनो भोक्ता आत्मा नथी; परंतु ते पदार्थोना भोग काळे आने जे राग थाय छे ते रागनो ते भोक्ता छे, पण ते आकुळतानो भोग छे. हवे जेने अनाकुळ आनंदनो भोगवटो छे तेना आनंदनुं कारण नाम साधन कोण? अहा! अनाकुळ आनंदनो भोग करवो होय तो तेना साधननी शोध अवश्य करवी जोईशे. अहीं कहे छे-तारा आनंदनुं साधन अनंत शक्तिवान एवो तुं ज छो. अहाहा...! तारा आत्मामां एक साधनशक्ति त्रिकाळ पडी छे, तेथी शक्तिवानने शोधवाथी, तेमां अंतर्मुख द्रष्टि करवाथी, तारो आत्मा ज तने अनाकुळ आनंदनुं साधन थईने अनाकुळ आनंदनो भोग आपे छे. माटे सहजानंदी निजानंदी प्रभु आत्माने ज साधन जाणीने तेमां अंतर्मुख था. समजाय छे कांई...? अहा! अनाकुळ आनंदनुं वेदन तेनुं नाम धर्म छे.
अहाहा...! आत्मामां अपरिमित अनंत शक्तिओ छे. तेनी एकेक शक्ति अनंत गुणमां व्यापक छे. ए रीते प्रत्येक गुणमां आ साधनशक्ति व्यापक छे. तेथी अनंतगुणनिधान निज आत्मद्रव्य-ध्रुव त्रिकाळीनो आश्रय करतां शक्तिओ वडे आत्मा स्वयं साधनरूप थईने पोतानी निर्मळ पर्यायोने उत्पन्न करे छे. ल्यो, आ छे समकितथी मांडीने पंच परमपद पर्यंतनां स्थानोनी सिद्धिना साधननुं रहस्य. हवे जैनमां जन्मीने पण लोको ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि पंच परमेष्ठीना जाप जपे, पण एनी सिद्धिनुं साधन शुं? एनो विचार सुद्धां ना करे. अरे भाई, नमस्कार मंत्रना जाप तो एणे अनंत वार कर्या छे. पण एथी शुं लाभ? ए तो शुभराग छे, एमां पंच परमपदरूप धर्म कय ांथी आवे? पंच परमपदरूप धर्मदशाना कारणरूप-साधनरूप तो अंदर साधनस्वभावमय आत्मा छे. माटे जापना विकल्पना आश्रयथी खसी, भगवान आत्माना आश्रयमां जा, एम करतां तारो आत्मा ज निज स्वभाव-साधन वडे पंच परमपदरूप थई तने साध्यनी सिद्धि करावशे-देशे. आ सिवाय बीजी कोई रीते साध्यनी सिद्धि नथी. आचार्यदेव स्वयं कळशमां कहे छे-
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।।
अहा! आत्मानो आ स्वभाव ज एवो छे के तेने साधन बनावीने अनंता जीवोए सिद्धपद साध्युं छे, अने स्वभावना साधन वडे ज अनंता जीव सिद्धपदने साधशे. निज स्वभाव सिवाय बहारमां-निमित्तमां ने रागमां साधन शोधनाराने तो संसारनी ज सिद्धि थशे, अर्थात् ते संसारमां ज रखडशे.
भाई, साधकने पोतानो आत्मस्वभाव ज प्रतिसमय निर्मळतानुं साधन थाय छे. आत्मामां साधनशक्ति तो त्रिकाळ छे. पण पोते स्वसन्मुख थई निज स्वभावसाधनने ग्रहे तो ने? स्वसन्मुख थईने स्वभाव-साधनने ग्रहे तो समकित सहित साधकदशा अवश्य प्रगट थाय छे. अहा! त्रिकाळी द्रव्यने साधनपणे ग्रहतां ज ज्ञानादि अनंत गुणो पोतपोतानी निर्मळ पर्यायो रूप परिणमी जाय छे. प्रवचनसार गाथा २१नी टीकामां कह्युं छे के-केवळीभगवान “स्वयमेव समस्त आवरणना क्षयनी क्षणे ज, अनादि अनंत, अहेतुक अने असाधारण ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे ग्रहवाथी तुरत ज प्रगटता केवळज्ञानोपयोगरूप थईने परिणमे छे..” जुओ, आमां केटली स्पष्ट वात छे! केवळज्ञाननुं साधन बीजुं कोई छे ज नहि, पोतानो ज्ञानस्वभाव ज केवळज्ञाननुं साधन छे. आवी रीते श्रद्धा, आनंद आदि बधी ज शक्तिओना परिणमनमां समजी लेवुं.
भाई, आ तो तारा घरमां पुंजी छे तेनी वात चाले छे. अहाहा...! तारी पुंजीमां अनंत गुण-स्वभाव छे. तेमां एक करण-साधन स्वभाव छे जे वडे प्रत्येक गुणनुं समये समये निर्मळ निर्मळ कार्य थाय तेनुं आत्मा साधन थाय छे. त्यारे कोई कहे छे-
हा, पण आ तो निश्चयनी वात छे. भाई, तुं एने निश्चय... निश्चयनी वात छे एम कही अवगणना करे, पण निश्चय एटले सत्य वात छे, ने व्यवहार तो उपचार छे. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप समजाव्युं छे. त्यां कह्युं छे-“जिनमार्गमां कोई ठेकाणे तो निश्चयनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने तो ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं तथा कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने ‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे’ एम जाणवुं. अने ए प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं ग्रहण छे पण बन्ने नयोना व्याख्यानने समान