Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४३-करणशक्तिः १९७

सत्यार्थ जाणी, ‘आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे’ एवा भ्रमरूप प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयो ग्रहण करवा कह्या नथी.” अहाहा...! पंडितप्रवर टोडरमलजीए. केटली बधी स्पष्टता करी छे! पण अरे, जीवे भगवाननो मार्ग रुचि लावीने सांभळ्‌यो नथी; बस एम ने एम व्रतादिने साधन मानी हांके ज राखे छे. पण बापु!

“मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायो;
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो”

जुओ, आमां शुं कहे छे? ‘सुख लेश न पायो’-एनो अर्थ ए थयो के ए परिणाम दुःख छे. पंच महाव्रत पाळ्‌यां एनाथी लेश सुख ना थयुं, दुःख थयुं. अहा! अज्ञानीने बहारनुं चारित्र (द्रव्य चारित्र) दुःखनुं साधन थाय छे. भाई, तेने आ आकरुं पडे छे, पणआसत्य छे. अहाहा...! चारित्र कोने कहीए? जेमां अंदर प्रचुर आनंदनी ल्हेर उठे. तेनुं नाम चारित्र छे अने आत्म स्वभाव ज तेनुं साचुं साधन छे. व्रतादिने साधन कह्यां छे ए तो उपचारथी छे, मतलब के एम नथी. धर्मी तो एने हेय जाणे छे, ने अज्ञानी तेने उपादेय जाणे छे. बन्नेमां आवडो मोटो फेर छे. आवी गजब वात छे भाई!

पात्र समजनार होय तेने आ कहेवाय छे. पोतानी पात्रता न होय तेने साक्षात् केवळीनी वाणी पण शुं करे? पात्रता पोताथी प्रगट थाय छे, परथी नहि. अहाहा...! आ पात्रता शुं चीज छे? के जेनाथी सम्यग्दर्शन पामे तेने पात्रता कहीए. अहो! सम्यग्दर्शननी साथे सिद्धपद जोडायेलुं छे. मतलब के जेने स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शनरूपी बीज उगी तेने ते ज स्वभावना साधन वडे सिद्धपदरूपी पूनम थशे ज थशे. अहो! आवो निज स्वभाव-साधननो अलौकिक महिमा छे. समजाय छे कांई...?

अरेरे! संसारी प्राणीओ अत्यंत दुःखी छे. मोटो राजा होय, ने मरीने नरकमां चाल्यो जाय. अहा! तीव्र हिंसादि पापना भाव करी जीव नरकमां जाय छे. २प वर्षना युवान राजकुमारने जमशेदपुरनी लोढा गाळवानी भठ्ठीमां जीवतो नाखे ने जे दुःख थाय तेनाथी अनंतगणी उष्णतानुं दुःख पहेली नरकमां छे. भाई, आवा आवा भव तें अनंत वार कर्या छे. तारुं दुःख देखनारने पण रूदन आव्यां छे. अरेरे! तारा मृत्यु पाछळ तारी माताना रूदनना आंसुना एक एक बुंदना संग्रहथी दरियाना दरिया-अनंत दरिया भराय एटलां मरण तें कर्या छे. बहु गंभीर वात छे भाई! अहा! जेने संसारना परिभ्रमणनो थाक लाग्यो एवो कोई जीव पात्र थईने स्वद्रव्य सन्मुख थई स्वभावना ग्रहण वडे समकित प्रगट करी ले छे. अहा! ते धर्मी जीव विशेष वैराग्य पामीने स्वरूपनी रमणता करवा एकलो ज जंगलमां चाल्यो जाय; कोई साथे नहि, कोई आहार देनार नहि, कोई शरीरनी रक्षा करनार नहि, कोई वैद्य साथे नहि; अहाहा...! अंदर एकत्वना आलंबनमां रही अंतरना आनंदनी लहेर करवा एकांत जंगलमां चाल्यो जाय. मुनि थता पहेलां माता पासे रजा मागे-माता, रजा आप; माता रडे तो कहे-एक वार रूदन करी ले, हवे हुं कोल आपुं छुं के फरी बीजी माता नहि करुं. स्वभावना उग्र आलंबनमां रही चारित्रनी उग्र साधना करीश. आजे ज चारित्रना आनंदनी दशाने हुं अंगीकार करवा मागुं छुं. रजा आप. ल्यो, अत्यारे तो आवी वातेय सांभळवा मळे नहि. पण जन्म-मरणना रोग मटाडवानी आ ज दवा छे. आत्मानो आश्रय लेवो ए ज औषध छे.

आत्म–भ्रान्ति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण;
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान.

निमित्त साधन, ने राग साधन-एवी भ्रांति समान कोई रोग नथी. मिथ्यात्व महा रोग छे. सत्ने जाणनारा गुरुनी आ आज्ञा छे के स्वद्रव्यना आश्रयमां जतां धर्म थशे; तारो स्वभाव ज तारा धर्मनुं साधन छे. विचार अने ध्यान ते औषधि छे. स्वरूपनी एकाग्रतारूप ध्यान ते औषध छे. आ सिवाय बहारनां औषध बधां धूळ धाणी छे, उपाय नथी.

आ प्रमाणे अहीं करणशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.