हवे आमां केटलाक कहे छे के गुरु समकितना दातार छे, अने केवळी-श्रुतकेवळीनी समीपमां क्षायिक समकित थाय छे.
अरे भाई, ए तो बधां निमित्तनां कथन छे बापु! पोते अंतरंगमां निज स्वभावना साधन वडे समकित प्रगट करे त्यारे बहारमां निमित्त केवां होय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे आवां कथन होय छे ते उपचारमात्र जाणवां. बाकी कोई, कोई बीजाने समकित आपे अने ले एवुं समकितनुं स्वरूप नथी, अने वस्तुस्वरूप पण एवुं नथी. समजाणुं कांई...?
प्रभु! तारी चीजमां शुं खामी छे के तारे बीजा पासेथी लेवुं छे? भगवान! तुं पूर्ण छो ने! पूर्ण विज्ञानघन छो ने! पूर्ण आनंदघन छो ने! अहाहा...!
प्रभु मेरे! तूं सब वाते पूरा...
परकी आश कहा करे प्रीतम!
ए किण वाते अधूरा–प्रभु मेरे...
ओहो...! धर्मी कहे छे-मारो आत्मा स्वयमेव अचिंत्य शक्तिवाळो देव छे. तेने ध्यावतां ज केवळज्ञान आदि आपे एवो ते चैतन्यचिंतामणि छे. आम जेना सर्व अर्थ सिद्ध छे एवो पोते ज होवाथी मने बीजानी शुं आशा छे? मने बीजी चीजथी शुं काम छे? (जुओ कळश १४४) अहीं कहे छे-केवळज्ञाननी पर्याय जे प्रगटी तेनो पोते ज दातार छे, ने पोते ज तेनो पात्रपणे लेनारो छे. समजाय छे कांई...? अंदर शाश्वत चैतन्यदेव विराजे छे, तेने सेवतां सहेजे समकितथी मांडीने सिद्धपदनां ए दान आपे छे. माटे पराश्रय छोडी, भाई, तारी चैतन्यवस्तुनुं सेवन कर.
अरे, अनंत काळथी रखडवा आडे एने सत्य समजवानी फुरसद नथी! अनंत काळमां शुभ-अशुभ भाव तो एणे अनंतवार कर्या छे. पण ए तो विभाव नाम विपरीत भाव छे. ते विभावनी पर्याय पर्यायद्रष्टि जीवने पर्यायना षट्कारकथी स्वतंत्र उत्पन्न थाय छे. अहाहा...! परना कारक विना, ने द्रव्य-गुणनी अपेक्षा विना पर्यायना पोताना षट्कारकथी विभावनी दशा स्वतंत्र अद्धरथी ज उभी थाय छे. अहा! आ विभावनी दशाने देवी के लेवी ए अज्ञानीनी चेष्टा हो, पण एवो कोई गुण आत्मामां नथी. गजब वात छे भाई! कहे छे के-शुभभाव थवो, देवो अने तेने पोतामां राखवो एवो कोई गुण आत्मामां छे ज नहि.
भाई, तारा खजाने खोट नथी नाथ! तारा खजाने तो अनंत अनंत शक्तिओनी ऋद्धि पडी छे ने! तुं बहारमां कयां शोधवा जाय छे? बहार तुं भटके छे ए तोसंसार छे. चाहे अशुभभाव होय के शुभभाव होय-ए बन्नेय संसार छे, दुःखनो दावानल छे. तारी शांतिने बाळवा सिवाय तने ए कांई आपे एम नथी.
अहाहा...! अनंत गुणसमृद्धिथी भरेलो चैतन्यचिंतामणि प्रभु आत्मा छे. तेनो एक संप्रदान गुण छे. ते द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. ते आनंद गुणमां व्यापक छे. जेथी धर्मीने आनंदनी जे निराकुळ दशा प्रगट थई तेनुं पोते ज पोताने दान करे छे, ने पोते ज पात्र थई तेने ले छे. जुओ आ धर्मीनुं दान! धर्मीने तो निरंतर अतीन्द्रिय आनंदनो आहार छे ने? अहा! ते अतीन्द्रिय आनंदरूप आहारनुं दान पोते पोताने आपे छे, ने पोते पोताना माटे सुपात्रपणे ले छे. अहा! आ धर्म छे जेमां दातार-दान-दाननुं पात्र-बधुं एक अभेद आत्मामां समाय छे. पोते प्रगट आनंदनो दातार, पोतानी प्रगट आनंद दशा ते दान, ने तेने लेनारो-पोताने माटे राखनारो-पोते ज पात्र. एक समयमां दातार पण पोते, दान पण पोते ने पात्र पण पोते. अहो! आत्मा अद्भुत अलौकिक चीज छे.
चक्रवर्तीने घरे वाघरण होय तेने मागवानी टेव छूटे नहि. गोखलामां रोटलो मूकीने मागे के-‘बटकु रोटलो आपजो बा.’ अने ते रोटलो ले त्यारे तेने मन वळे. तेम जीव अंदरमां चैतन्य चक्रवर्ती प्रभु विराजे छे. अज्ञानी तेने भूलीने शुभाशुभ भाव करीने सुख लेवा मागे छे. मने पुण्य होय तो ठीक, बहारना वैभव होय तो ठीक-एम बहारमां भीख मागे छे ते रांका-भिखारी छे. तेने बीजा पासे सुख मागवानी टेव पडी गई छे. पोते अंदर चैतन्यबादशाह छे, पण तेने रागनो-पुण्यनो गुलाम बनावी दीधो छे. तेने पोतानो महिमा भासतो नथी. अहाहा...! अंदर त्रणलोकनो नाथ चैतन्यचक्रवर्ती विराजे छे तेनो महिमा तेने शुभभावना महिमा आडे भासतो नथी. पण भाई रे, तने बहारमां कोई सुख आपे एम नथी. तुं अंदर जो तो खरो, अहाहा...! अंदर एकलो सुखनो दरियो भर्यो छे.