२००ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहा! जेणे पोताना स्वभावनी द्रष्टि करी तेने तेनी पर्यायमां सुख प्रगट थाय छे. आत्मामां सुख नामनो गुण छे ने! अहाहा...! अंदर एकलो सुखनो समुद्र छे. तेमां द्रष्टि करतां सुख पर्याय प्रगट थई ते पोता द्वारा पोताने देवामां आवे छे, अने पोते ते सुखनी पर्यायने लेवानी पात्रतामय छे तेथी लेनार पण पोते छे. बहारमां कोईनी सहाय नहि, अपेक्षा नहि. भाई, विषयोमांथी सुख आवे छे एम तुं माने छे ए केवळ भ्रम छे. जो विषयो सुख आपे अने तने ते पहोंचे एम होय तो तने पराधीनता आवे, ने पराधीनने सुख केवुं? पराधीनने स्वप्ने पण सुख न होय. स्वाधीनपणे आत्मा पोते ज पोताना सुखनो दातार छे, ने पोते ज पात्र थईने लेनार छे. आवी ज वस्तु-व्यवस्था छे.
समयसारनी ७२मी गाथामां आत्माने भगवान कहीने बोलाव्यो छे. आनंदनी दशामां लीन मुनिराज कहे छे-सांभळ भगवान! तारी पर्यायमां पामरता छे, वस्तुमां पामरता नथी. वस्तुमां अनंती प्रभुता भरी छे. अहाहा...! एकेक शक्ति पूर्ण प्रभुताथी भरी छे. ज्ञाननी पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे. पोताना द्वारा ते पर्याय देवामां आवे छे, अने पोताना द्वारा ते पर्याय लेवामां आवे छे. बन्नेनो समय एक छे. देनार दाता, अने लेनार पात्र-बन्ने एक ज पर्यायमां छे. गुरु तेना दाता नथी, शास्त्र तेनुं दाता नथी. देव तेना दातार नथी. देव-गुरु-शास्त्र तो बाह्य निमित्तमात्र छे. तेमणे ज आ कह्युं छे के-तारामां अक्षय भंडार भर्यो छे, तेमां नजर कर तो न्याल थई जईश. तारी निर्मळ रत्नत्रय आदि पर्यायोनुं तुं ज दाता छो. बीजुं कोई नहि ने ते निर्मळ भाव लेवानी पात्रतामय पण तुं ज छो.
अहो...! शक्तिनो अद्भुत खजानो प्रभु आत्मा छे. अज्ञानी जीवे दया, दाननो विकल्प ते मने लाभदायी छे एम रागनी एकताबुद्धि वडे खजानाने ताळुं दीधुं छे, पण रागथी भेद करी अंतर एकाग्रता करतां ताळुं खूली जाय छे ने तत्काल खजानामां गुणरत्नो भर्यां छे ते प्रगट थाय छे. अहाहा...! ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्वच्छता, प्रभुता इत्यादि सर्व गुणनी निर्मळ दशा प्रगट थाय छे. अहा! ते निर्मळ भाव जे प्रगट थयो ते पोताथी देवामां आवतो भाव छे, तेनो दातार पोते छे, ते निमित्त द्वारा के राग द्वारा देवामां आवे छे एम कदीय नथी. आ अनेकान्त छे. अंदर ऊंडो विचार करे तो खबर पडे के-पूर्वनी निर्मळ पर्याय छे ते पण वर्तमान पर्यायनी दाता छे एम नथी त्यां बाह्य निमित्तादि मारा दातार-ए वात ज कयां रहे छे? सत्य तो आवुं छे भाई! आवी वात बीजे कयांय नथी, श्वेतांबरमांय नथी. आ सांभळी बीजाने दुःख थाय पण शुं करीए? बीजाने दुःख लगाडवानी आ वात नथी, आ तो सत्यनुं ज उद्घाटन छे. भाई, विपरीत द्रष्टिनुं तने दुःख छे. विपरीत द्रष्टि छोडी दे, तने महान लाभ थशे.
प्रश्नः– गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी एम आप वारंवार कहो छो, तो पछी धर्मी पुरुषो गुरु प्रति विनय-भक्तिरूप केम प्रवर्ते छे?
उत्तरः– गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी-ए तो सत्य ज छे. एवी ज वस्तुस्थिति छे. अहा! श्री गुरु आवो वस्तुस्वभाव देशनाकाळे बहु प्रसन्नताथी शिष्यने बतावे छे तो पात्र शिष्य तेने झीलीने उत्कट अंतःपुरुषार्थ प्रगट करी अंतःनिमग्न-स्वरूप निमग्न थई साधकभावना अंकुरा एवा समकितने ने आनंदने प्रगट करी ले छे. हवे तेने विकल्पकाळे श्रीगुरु प्रति बहुमान अने विनय-भक्ति अंदर हृदयमां ऊछळ्या विना रहेतां नथी. साधकदशा ज आवी होय छे. अंदर लोकोत्तर आनंदनी दशा थई तेने बहारमां देव-गुरु-शास्त्र प्रति विनय- भक्तियुक्त प्रवर्तन होय ज छे; तेनो व्यवहार पण लोकोत्तर होय छे.
कोई आवी साधकदशाने जाणे नहि, ने ‘गुरुथी ज्ञान थतुं नथी, गुरु ज्ञानना दाता नथी’-एम विचारी श्रीगुरु प्रति उपेक्षा सेवे छे ते निश्चयाभासी स्वच्छंदी छे, आनंदने झीलवानी तेनी पात्रता हजु जागी नथी. अहो! आवो निश्चय-व्यवहारना संधिपूर्वकनो कोई अद्भुत लोकोत्तर मार्ग छे. जेने गुणनी-धर्मनी प्रीति छे तेने गुणवान धर्मी प्रति आदर, प्रमोद ने प्रीतिनो भाव थया विना रहेतो नथी. अंतर्बाह्य विवेकनो आवो मारग छे भाई! समजाणुं कांई...?
चार प्रकारनुं दान निर्दोषभावथी देवुं ए शुभभाव छे. दान लेनार पात्र निर्ग्रंथ दिगंबर मुनिवर आदि छे. सम्यग्द्रष्टिने भक्तिभावे आहारादिनुं दान देवानो भाव आवे ते शुभ छे. तथापि दान देवानो शुभभाव थाय तेवो आत्मामां कोई गुण नथी. ते तो अवस्थानुं विपरीत कार्य छे. तेने शुं लेवुं-देवुं? गुणनुं कार्य तो आ छे के निर्मळ अवस्था प्रगटी ते पोते दीधी, ने पात्रपणे पोते लीधी. हवे आमां व्यवहारथी थाय ए वात कयां रही? व्रत करो, तपस्या करो, भक्ति-पूजा करो-एम अत्यारे प्ररूपणा चाले छे. तेने कहीए छीए के एनाथी धर्म कदी य नहि थाय. एवो शुभभाव आवे खरो, साधकने यथासंभव आवे ज आवे, पण ते भाव गुणनी विपरीत अवस्था छे. शुभभाव लेवा-देवानी चेष्टा